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अधगीले चौके में वह/ अम्बर रंजना पाण्डेय
Kavita Kosh से
अधगीले चौके में वह
छौंकती है खिचड़ी आधी रात
उजाले को बस डिबरी है
सब और सघन अंधकारा है
मावठा पड़ा है पूस की काली रात
शीत में धूजते है
उसके तलुवे
मुझे लगता है मेरे भीतर
बाँस का बन जल रहा है
सबसे पहले धरती है पीतल
भरा हुआ लोटा सम्मुख, फिर पत्तल पर
परसती हैं भात धुन्धुवाता
सरसों-हल्दी-तेल-नौन से भरा
'यहीं खिला सकती हूँ
मैं जन्म की दरिद्र, अभागिन हूँ
खा कर कृतार्थ करें
इससे अधिक तो मेरे पास केवल यह
देह है
मैल है धूल है, शेष कुछ नहीं'
संकोच से मेरी रीढ़ बाँकी होती
जाती है ज्यों धनुष
वह करती रहती है प्रतीक्षा
मेरे आचमन करने की
कि माँग सके जूठन
और मेरी भूख है कि शांत ही नहीं होती
रात का दिन हो जाता है
अन्न का हो जाता है ब्रह्म