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अधजगी नींद / गुलशन मधुर
Kavita Kosh से
ठिठुराती सर्दी के उस दिन
खिड़की से
एक उजली, मीठी धूप
मुस्कुराती हुई
कमरे के बीचोंबीच
मेरी आराम कुर्सी पर
उतर आई
बहुत अच्छा लगा
बड़ी राहत मिली
गुनगुनी उष्णता से
आंखें मूंदे पड़ा रहा
अपने सुखद स्पर्श से
सहलाती रही मेरी बंद पलकों को
वह मृदुल, सुहानी धूप
पता ही नहीं चला
कब आंख लग गई
जब एक ठिठुरन ने
जगा सा दिया
तो अधखुली आंखों ने देखा
कमरे में अंधेरा था
अधसोए मैंने सोचा
धूप बुझ गई है
जला दूं
स्विच ऑन कर दूं
कुर्सी से उठते उठते
अर्धसुषुप्ति जा चुकी थी
बहुत हंसी आई अपने पर
धूप को कौन जला-बुझा पाया है
धूप का
कोई ऑन-ऑफ़ स्विच नहीं होता
ठीक वैसे
जैसे प्यार का