अधिकार तुम्हारा / शंकरलाल द्विवेदी
अधिकार तुम्हारा
पंछी हूँ, अधिकार तुम्हारा, मैं स्वीकार करूँ- तो कैसे?
इसमें दाना तो मिलता है, पंखों पर बंधन लगता है।।
साँझ घिरे, तरु पर लौटे हैं,
हँस-हँस कर कहते-सुनते हैं।
करुणा-साहस भरी कथाएँ-
दिन भर कण कैसे चुनते हैं।।
आँगन का गहरा सन्नाटा, पीने का अभ्यासी क्यों हूँ?
मन को चिन्तन तो मिलता है; आहट से विस्मय होता है।।
बस मुँडेर तक आ पाती हैं,
इस घर में सूरज की किरणें।
दीवारें इतनी मोहक हैं-
छिपकलियाँ शलभों को निगलें।।
दीपों के पीले प्रकाश का, दंभ सहूँ, ऐसा क्यों?- बोलो।
स्वर में स्वर तो मिल जाता है, गति-लय में अंतर पड़ता है।।
पिंजरे पर पुरने वाले, इन-
मकड़ी के जालों से क्या है?
पंछी की गति कहाँ रुकी है,
कीड़ों की चालों से क्या है?
जूठी थाली भर पानी में, अम्बर की छबि से लौ बाँधूँ?
आँखों को सुख तो मिलता है, -ध्रुवतारा ओझल रहता है।।
-९ मई, १९६७