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अधिकार सबका है बराबर / गोपालदास "नीरज"

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फूल पर हँसकर अटक तो, शूल को रोकर झटक मत,
ओ पथिक ! तुझ पर यहाँ अधिकार सबका है बराबर !

बाग़ है ये, हर तरह की वायु का इसमें गमन है,
एक मलयज की वधू तो एक आँधी की बहन है,
यह नहीं मुमकिन कि मधुऋतु देख तू पतझर न देखे,
कीमती कितनी कि चादर हो पड़ी सब पर शिकन है,
दो बरन के सूत की माला प्रकृति है, किन्तु फिर भी-
एक कोना है जहाँ श्रृंगार सबका है बराबर !

फूल पर हँसकर अटक तो, शूल को रोकर झटक मत,
ओ पथिक ! तुझ पर यहाँ अधिकार सबका है बराबर !
कोस मत उस रात को जो पी गई घर का सबेरा,
रूठ मत उस स्वप्न से जो हो सका जग में न तेरा,
खीज मत उस वक्त पर, दे दोष मत उन बिजलियों को-
जो गिरीं तब-तब कि जब-जब तू चला करने बसेरा,
सृष्टि है शतरंज औ’ हैं हम सभी मोहरे यहाँ पर
शाह हो पैदल कि शह पर वार सबका है बराबर !

फूल पर हँसकर अटक तो, शूल को रोकर झटक मत,
ओ पथिक ! तुझ पर यहाँ अधिकार सबका है बराबर !

है अदा यह फूल की छूकर उँगलियाँ रूठ जाना,
स्नेह है यह शूल का चुभ उम्र छालों की बढ़ाना,
मुश्किलें कहते जिन्हें हम राह की आशीष है वह,
और ठोकर नाम है-बेहोश पग को होश आना,
एक ही केवल नहीं, हैं प्यार के रिश्ते हज़ारों
इसलिए हर अश्रु को उपहार सबका है बराबर !

फूल पर हँसकर अटक तो, शूल को रोकर झटक मत,
ओ पथिक ! तुझ पर यहाँ अधिकार सबका है बराबर !
देख मत तू यह कि तेरे कौन दाएँ कौन बाएँ,
तू चलाचल बस कि सब पर प्यार की करता हवाएँ,
दूसरा कोई नहीं, विश्राम है दुश्मन डगर पर,
इसलिए जो गालियाँ भी दे उसे तू दे दुआएँ,
बोल कड़ुवे भी उठा ले, गीत मैले भी धुला ले,
क्योंकि बगिया के लिग गुंजार सबका है बराबर !

फूल पर हँसकर अटक तो, शूल को रोकर झटक मत,
ओ पथिक ! तुझ पर यहाँ अधिकार सबका है बराबर !

एक बुलबुल का जला कल आशियाना जब चमन में,
फूल मुस्काते रहे, छलका न पानी तक नयन में,
सब मगन अपने भजन में, था किसी को दुख न कोई,
सिर्फ़ कुछ तिनके पड़े सिर धुन रहे थे उस हवन में,
हँस पड़ा मैं देख यह तो एक झरता पात बोला-
‘‘हो मुखर या मूक हाहाकार सबका है बराबर !’’

फूल पर हँसकर अटक तो, शूल को रोकर झटक मत,
ओ पथिक ! तुझ पर यहाँ अधिकार सबका है बराबर !