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अधियाये बादल / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
पके हुए जामुन के रंग के मेरे बादल
तुम्हें देख कर यह कैसा भय मन में आता
जाने क्या-क्या सोच, अकेले में, डर जाता
जब भी आते, और बजाते प्रतिपल मादल ।
लगता नीलम घर था मेरा गाँव बड़ा यह
जब आषाढ़ लाँघ तुम आते थे चुपके से
बँसबिट्टा, दसबिघिया वन लगते दुबके-से
कहाँ दिखाता था पर्वत जेठौर खड़ा यह !
नदियों को झकझोर उठा देते थे, ऊपर
छिप जाता था दिन; माँ के आँचल में जैसे
नभ पर दौड़ लगाते थे तुम, औघड़ ऐसे
सभी दिशाएं थरथर करती थीं तब भू पर ।
कौन बात हो गयी दिखाते अधियाये-सेे,
कौन अपसगुन जान गये ? हो हदियाये-से ?