अधूरे स्वप्न / पवन चौहान
रिश्तों की औपचारिकता निभाने
उसे रखा गया है बाहर
एक पतली चटाई पर
मात्र एक झांकती चादर के साथ
कड़कती ठंड में
वह बूढ़ा है
रोगग्रस्त है
उम्र भर ढोता रहा जो दुख-दर्द
एक स्वप्न पलकों पर सजाए
संतान सुख मिलेगा उसे भी
परंतु मुश्किल होता है
स्वप्न हकीकत की खाई को पाटना
वक्त के धारे में बहते रहे
जाने कितने बर्श, जाने कितने स्वप्न
जाने कब चेहरे पर झुर्रियाँ सज गईं
तरसते ही रहे कान दो मीठे बोल को ताउम्र
इच्छा ही रह गई एक प्यार भरी निगाह की
बिकता ही गया हर एक स्वप्न, ढेर सारे अरमान
मरती रही इच्छाएं भी
भरता ही गया पीड़ा का बाँध
जिनके लिए बिकता रहा हर चौखट
तोड़ता गया उसूल बारी-बारी
वही झूठ का बांध पुलिंदा
ठगते रहे उसे हर कदम पर
उम्मीद कभी यथार्थ न बन पाई
ऑंखों के बंद होने तक
तैरते रहे वही स्वप्न, वही अरमान
पर शायद उनमें झाँकने की
अपनों को फुर्सत ही नहीं थी