अध्याय ११ / भाग १ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति
अथ एकादशोअध्याय
मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम्।
यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम॥११- १॥
अर्जुन उवाच
अति गोप परम अध्यात्म ज्ञान ,
जेहि माधव ने उपदेश करयौ .
अति दिव्य अनुग्रह केशव कौ,
अज्ञान मेरौ अथ शेष हरयौ
भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया।
त्वत्तः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम्॥११- २॥
शुभ शुभ्र कमल नयनं कृष्णा,
संहार सृजन सब प्राणिन कौ.
अथ तोरे ही श्री मुख माहीं सुन्यौ
कछु चाह नहीं अब जाननि कौ
एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर।
द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम॥११- ३॥
परब्रह्म प्रभो तुम आपुनि कौ,
जस कहवती हौ , तुम तौ तस हौ.
पुरुषोत्तम हे ! ऐश्वर्य तेरौ,
में जानिबु चाहत हूँ जस हो
मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो।
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम्॥११- ४॥
अविनाशी माधव रूप तेरौ ,
मैं जानि सकूं यहि संशय है,
अब रूप विराट की चाह घनी,
योगेश! मेरौ अस आश्य है
पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः।
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च॥११- ५॥
श्री भगवानुवाच.
बहु विविधा वर्ण सरूपन कौ
और दिव्य अलौकिक रूपन कौ.
तू देखि सहस्त्र शतं छवि कौ.
हे पार्थ! तू रूप अनूपन कौ
पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा।
बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत॥११- ६॥
वसु आठ तो ग्यारह रुद्रन कौ,
आदित्य के बारह पुत्रन कौ,
उन्चास मरुत, लखे दृश्य विरल.,
संभव कब होत कोऊ जन कौ?
इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम्।
मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद् द्रष्टुमिच्छसि॥११- ७॥
हे पार्थ ! मोरी यही देह में ही ,
जग सगरौ चराचर वास करै,
यहि देह में चाहें सों देखौ,
मन चाहो सरूप जो आस करै
न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा।
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्॥११- ८॥
इन नयनन सों मोहे देखे कहीं,
कोऊ किंचित समरथ होत नहीं..
सों दिव्य नयन तोहे देत यहीं ,
मोरी यौगिक शक्तिन देख महीं
एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरिः।
दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम्॥११- ९॥
संजय उवाच
संजय धृतराष्ट्र सों बोल रहे ,
श्री कृष्ण महा योगेश्वर नें,
निज दिव्य सरूप दिखायौ है.
अर्जुन कौ श्री धरनी-धर ने
अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम्।
अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम्॥११- १०॥
मुख नेत्र अनेक विचित्र बहु,
बहु भाषण दैविक शस्त्रन कौ,
गिरधारी उठाय रहे कर सों ,
अस रूप दिखावत अर्जुन कौ
दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम्।
सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम्॥११- ११॥
बहु माल अलौकिक धारे हिया ,
अनुलेप सुवासित दिव्य कियौ .
आद्यंत विहीन विराट महेश ,
ने रूप अरूप तौ भव्य कियौ
दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता।
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः॥११- १२॥
नभ माहीं सूर्य सहस्त्र रहें ,
तोऊ पार ना पावैं ज्योतिन कौ,
अस ज्योति सों ज्योतित श्री मुख कौ ,
अर्जुन देखति तेहि जगपति कौ
तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा।
अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा॥११- १३॥
बहु भांति विभक्त विविध जग कौ,
एक ठाँव में पार्थ ! लखाय रह्यो.
उन देवों के देव की देह में तौ ,
ब्रह्माण्ड ही सगरौ समाय रह्यो
ततः स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनंजयः।
प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत॥११- १४॥
रह्यो ठाड़ो ठ्ग्यो सों , धनंजय तौ ,
रोमांचित हर्ष भयो तन में.
कर जोड़ के श्रद्धा भक्तिन सों,
कियौ सीस नमन पुलकित मन में
पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसंघान्।
ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थमृषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान्॥११- १५॥
अर्जुन उवाच
सगरे देवन, ऋषियन , ईशन
और दिव्य अनेकन सर्पन कौ,
अवलोकत, पद्म आसीन हैं जो,
ब्रह्मा और सगरे देवन कौ
अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम्।
नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप॥११- १६॥
मुख नेत्र अनेकन हाथ बहु,
ना आदि ना मध्य ना अंत दिखै,
विश्वेश्वर विश्व सरूप अहे.
को समरथ जो कि अनंत लखै
किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम्।
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम्॥११- १७॥
तोरौ चक्र , गदान किरीट सों युक्त
प्रकाशन तेज कौ पुंज घनयो.
द्युतिमान दिवाकर पावक सों,
अस तोरो सलोनो सरूप बनयो
त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे॥११- १८॥
परमेश परम आधार तू ही,
तू ही जाननि जोग सनातन है.
अविनाशी धर्म कौ रक्षक है.
अक्षर शुचि सत्य पुरातन है
अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यमनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रं स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्॥११- १९॥
ना आदि ना अंत ना मध्य कहहूँ ,
तव बाहु अनंत समर्थ महा,
रवि-चन्द्र नयन ज्योतित आनन ,
स्व तेज सों ज्योतित विश्व अहा!
द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः।
दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन्॥११- २०॥
यहि स्वर्ग धरा के बीच गगन ,
और सगरी दिशा वासुदेव मयी,
लखि उग्र अलौकिक रूप तेरौ ,
तिहूँ लोक व्यथित भयभीत भयी
अमी हि त्वां सुरसंघा विशन्ति केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति।
स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसंघाः स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः॥११- २१॥
तुझ माहीं ये देव प्रवेश करैं,
कर जोड़ी के भय सों नाम जपें.
गण सिद्ध महर्षि के, स्वस्ति हो,
अथ स्रोत सों तेरौ ही जाप करैं
रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या विश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च।
गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसंघा वीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे॥११- २२॥
सुर, यक्ष, सिद्ध गण गन्धर्वन ,
वसु आठ आदित्यं रुद्रन कौ.
विस्मित भये आप कौ देखि रहे,
अश्रवनि मरुदगण पितरन कौ
रूपं महत्ते बहुवक्त्रनेत्रं महाबाहो बहुबाहूरुपादम्।
बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालं दृष्ट्वा लोकाः प्रव्यथितास्तथाहम्॥११- २३॥
बहु नेत्र, उदर, बहु, पद, जंघा.
बहु हाथ मुखन भय भीत लगै.
विकराल विशाल जबाड़न देखि के,
लोक विकल, भयभीत लगै
नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्णं व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम्।
दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो॥११- २४॥
नभ लौं विस्तारित मुख दमकत.
दैदीप्य मान इन नयनन सों ,
भयभीत मोरो अंतर्मन है,
मोरी धीरज शांति गयी मन सों
दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि।
दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास॥११- २५॥
विकराल जबाड़न ऐसों लगै
जस आग प्रलय की धधकत हो.
मुख देखि दिशा भ्रम होवत सों,
देवेश प्रसन्न मुखाकृत हो