अध्याय १३ / भाग १ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति
अथ त्रयोदशोअध्याय
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः॥१३- १॥
श्री भगवानुवाच
यहि क्षेत्र शरीर है हे अर्जुन!
कछु ऐसो ही तौ जात कह्यो,
यहि जानति जो क्षेत्रज्ञ वही,
ज्ञानिन सों तत्त्व ये ज्ञात भयो
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम॥१३- २॥
सब क्षेत्रन कौ मैं ही स्वामी,
जीवात्मा बन जो रहवत है
यहि क्षेत्र क्षेत्रज्ञन तत्त्व ही तौ,
सत ज्ञान यही मेरौ मत है
तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत्।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे शृणु॥१३- ३॥
यहि क्षेत्र जो है, और जैसो है,
यहि माहीं कौन विकार सुनौ,
क्षेत्रज्ञ जो है और जैसो है ,
हे अर्जुन! मोसों सार सुनौ
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक्।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः॥१३- ४॥
बहु भांति विविध बहु ऋषि जान सों,
विस्तार सहित श्रुति मन्त्रं सों,
बहु युक्तिन ब्रह्म के सूत्रन सों.
बहु भांति विविध बहु विधियन सों
महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः॥१३- ५॥
नभ, अग्नि, धरा, जल, वायु, अहम,
दस इन्द्रिन मन त्रिगुणी माया.
इन इन्द्रिन के हैं पांच विषय
तिन योगन , होत रचित माया
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं संघातश्चेतना धृतिः।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्॥१३- ६॥
सुख, क्लेश, द्वेष, अभिलाषा, धृति
,संघात शक्ति की चेतनता.
सब क्षेत्र के होत विकार सुनौ.,
संक्षेप से सुन लघुता महता
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः॥१३- ७॥
अभिमान व् दंभ विहीन क्षमा,
मन वाणी हिय की पावनता.
गुरु भक्ति,अहिंसा दृढ़ संयम,
और अंतर्मन की स्थिरता
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्॥१३- ८॥
मन सों जिन भोग की चाह तजै,
नाहीं देह अहम् को मान रहै
दुःख जन्म ,जरा , मृत्यु व्याधी
कौ पुनि-पुनि मन को ध्यान रहै
असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु॥१३- ९॥
सुत, गृह, नारी, धन आदि माहीं
आसक्ति ना होवे ना ममता.
हित अनहित, प्रिय अप्रिय माहीं,
जब चित्त में नित्य धरौ समता
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥१३- १०॥
तजि संग कुसंग एकांत रहै,
एकमेव ही ब्रह्म कौ ध्यान करै .
परब्रह्म तेहि मिलिहैं -मिलिहैं.
भक्ति व्यभिचार विहीन करै
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा॥१३- ११॥
अध्यातम ज्ञान में नित्य रहै,
जेहि ज्ञान सों ब्रह्म कौ देखि सक्यो ,
यहि ज्ञान सों शेष, विलोम यथा.
अज्ञान ही जग माहीं जात कहयो
ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते।
अनादि मत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते॥१३- १२॥
अथ जानिबौ, जोगन जानि , जेहि,
जन जानि जनार्दन जानति है.
आद्यंत हीन परब्रह्म अकथ ,
ना सत ना असत कहावति है
सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति॥१३- १३॥
सब दिसि सों सर मुख, स्रोत, नयन,
बहु हाथन पाँवन वालो प्रभो
संसार समाय के आपुनि में,
व्यापक जग माहीं आपु विभो
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च॥१३- १४॥
निर्गुण , पर योग की माया सों
सगरे गुन गिरधर भोग करै,
धारक, इन्द्रिन कौ ध्यान धरै,
आसक्ति हीन नाहीं भोग करैं
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत्॥१३- १५॥
अति सूक्षम सों अज्ञेय वही,
अति दूर पास परब्रह्म वही.
सब प्राणिन अन्तः बाह्य वही.
जग अखिल चराचर ब्रह्म वही
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च॥१३- १६॥
सब प्रानिन् मांहीं समान बसै
जासों अविभक्त, विभक्त लगै,
करता, भरता, हरता जाननि
के जोग वही सर्वज्ञ लगै
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्॥१३- १७॥
ज्योतिन की ज्योतिन माया सों,
तौ परम परात्पर , ज्ञेय वही.
सोई ज्ञान सों गम्य, अगम्य सों ब्रह्म ,
बसत हिय अंतस, श्रेय वही