अध्याय १४ / भाग १ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति
अथ चतुर्दशोअध्याय.
श्री भगवानुवाच
परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम्।
यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः॥१४- १॥
श्रेय जो ज्ञान है ज्ञानन में,
तोहे अर्जुन कृष्ण सुनाय रहे.
जेहि जानि मुनि जन मुक्त भये,
पद सिद्धि परम पद पाय रहे
इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च॥१४- २॥
पाय के रूप सरूप मेरौ,
जिन जानि लियौ तिन मुक्त भये ,
न सृष्टि के आदिहूँ लेत जनम,
न काल प्रलय भय युक्त भये
मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम्।
संभवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत॥१४- ३॥
हे अर्जुन! योनी में मूल सरूप,
मेरौ ही तौ चेतन रूप रह्यो.
स्थापन जीवन जड़- चेतन
के योगन , रूप सरूप रच्यो
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः संभवन्ति याः।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता॥१४- ४॥
कौन्तेय विविध योनिन माहीं,
विविधानि शरीर जो होत यहाँ ,
तिन गर्भंन धारक माँ त्रिगुनी
माया, मैं बीज पिता हूँ वहाँ
सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवाः।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्॥१४- ५॥
गुन सत, रज, तम हे महाबाहो !
देहिन कौ देह में बांधत हैं.
निष्पन्न प्रकृति सों अस, अर्जुन!
गुन तीनहूँ , सृष्टि प्रसारत हैं
तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम्।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ॥१४- ६॥
तीनहूँ गुन माहीं सत गुन तौ ,
अविकारी निर्मल होत तथा
ज्ञानन कौ सुख आसक्तिन सों,
अभिमान ज्ञान कौ होत यथा
रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम्।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम्॥१४- ७॥
रूप रजो गुन , राग कौ है,
तृष्णा आसक्ति लुभावै जो.
राग जगाय के देहिन में
फल करमन चाह जगावै जो
तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम्।
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत॥१४- ८॥
जेहि देह मोह अभिमान बसै,
गुन तामस मोह प्रधान करै,
अज्ञान जनित यहि देहन कौ,
निद्रा, आलस्य प्रदान करै
सत्त्वं सुखे संजयति रजः कर्मणि भारत।
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे संजयत्युत॥१४- ९॥
गुन सत्व लगावत धरमन में,
करै लिप्त रजो गुन करमन में .
ढकी लेत तमस गुन तामस में,
अथ जीव लगावै , प्रमादन में
रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत।
रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा॥१४- १०॥
रज, तमस दबाय के सत बाढ़े,
सत, रज दबाय तम बाढ़त है.
तस ही तम गुन और सत दबाय ,
के ही तो रजो गुन बाढ़त है
सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत॥१४- ११॥
जेहि कालहिं तन- मन इन्द्रिन में,
चेतनता ज्ञान विवेक जगै,
तेहि कालहिं जानो सत्व बढ्यो,
सत ज्ञान अलौकिक नेक लगै
लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ॥१४- १२॥
जब बाढ़े रजोगुण , लोभ बढ़े,
और स्वारथ बुद्धि प्रलोभन भी,
चंचल मन भोग विषय गामी ,
तृष्णा और मोह कौ बंधन भी
अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च।
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन॥१४- १३॥
जब बाढ़े तमोगुण कुरुनन्दन !
मन बुद्धि, मोद प्रमाद घनयो,
निंदा, निद्रा, आलस, विलास,
तमगुनी जनान प्रधान बनयो
यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत्।
तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते॥१४- १४॥
जब सत गुन बाढ़ति देहन में,
तेहि काल मरन यदि होवत है,
जिन उत्तम सात्विक करम कियौ,
सुख-स्वर्ग वे जना भोगत हैं
रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते।
तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते॥१४- १५॥
जेहि काल रजो गुन बाढ़े घनयो,
तेहि काल मरन यदि आवति है,
तिन योनी अधम, पशु कीट पतन ,
उपरांत मरन वे पावति हैं