अध्याय १ / भाग २ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते।
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत॥१-२१॥
पुनि बोले अर्जुन माधव सों,
श्री कृष्ण ! मैं ऐसों चाहत हूँ.
तनि ठाढ़ो करौ, हे अच्युत रथ,
सेनाउन बीच, विनयवत हूँ
यावदेतान्निरिक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान्।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे॥१-२२॥
जिन जुद्धन चाह सों आए यहॉं,
तिन- तिन्हीं, देखिबौ चाहत हूँ.
किन-किन सों जुद्ध मेरौ कत है,
किम कौन को जानिबु चाहत हूँ
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः॥१-२३॥
हित चाहत को दुरजोधन कौ,
मैं जानिबु चाहत उन उनकौ.
जिन जुद्धन चाह सों आए यहॉं,
मैं देखिबौ चाहत तिन तिनकौ
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्॥१-२४॥
संजय उवाच
संजय बोलत, धृतराष्ट्र सुनौ,
अथ पार्थ की चाह सुनी कृष्णा.
सेनाउन बीचहिं माधव रथ,
ठाढ़ो करि बोले यहि वचना
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्।
उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति॥१-२५॥
रथ भीष्म, द्रोण, आचार्य सबहिं,
निरपन के सम्मुख रोक दियो.
गुरुजन, कुरु कौ कुरुक्षेत्र मांहीं,
कौन्तेय देख बिनु शोक हिये
तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितॄनथ पितामहान्।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातॄन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा॥१-२६॥
अथ पार्थ पितामह गुरुजन कौ,
पुत्रन, पौत्रन और मित्रन कौ.
मामों ससुरों सब भ्रातन कौ,
सेनाउन देखत निजपन कौ
श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि।
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान्॥१-२७॥
उत ठाढे सबहिं निज बन्धु सखा.
अवलोकहिं होत मलीन जिया.
करुना मय चित्त सों पार्थ कहें,
मोरो शोक सों व्याकुल होत हिया
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्।
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्॥१-२८॥
अर्जुन उवाच
बन्धु सखा बहु ठाढे यहॉं,
जिन जुद्धन भाव हिया धारे.
तिन देखि हिया मोरो सूखत है,
और कांपत अंग शिथिल सारे
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते॥१-२९॥
गुरु स्वजन देखि के हे कृष्णा !
मुख सूखि रह्यो, घबराय जिया .
तन कंप शिथिल रोमांच भयौ,
मन बुद्धि भ्रमित, भरमाय हिया
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः॥१-३०॥
अति दाह त्वचा धध कात मोरी,
गांडीव हाथ सों जात गिरयो.
रहि सकूं खडा समरथ नाहीं,
मन मोरो शोक सों जात घिरयो
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे॥१-३१॥
लक्षण सगरे, विपरीत मोहे,
यही जुद्ध्हिं केशव दीखत हैं
कुल आपुनि मारि के आपुनि सों
कल्याण कहाँ, यही दुर्गति है
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा॥१-३२॥
सुख राज विजय की चाह नाहिं,
यही नैकु न नैकु मोहे चहिबौ,
अस राजहूँ भोग गोविन्द सुनौ,
अस जीवन को हम का करिबौ
येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च॥१-३३॥
सुख राज भोग सब यहि जग के,
जिनके हित मानव होत यथा.
सब ठाढे प्रान की आस छोड़,
केहि कारन जुद्धन होत प्रथा
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः संबन्धिनस्तथा॥१-३४॥
गुरुदेव पितर, दादा, मामा
निज सुत, पोते, चाचा, ताऊ.,
तस् ही बहुतेरे संबन्धी
सम्बंधित काहू सों काहू
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते॥१-३५॥
तिहूँ लोकन राजहूँ मोहे मिलै,
हे मधुसूदन ! तबहूँ नाहीं
मैं नैकु न मारि सकूं इनकों ,
भू के हित तो कबहूँ नाहीं
निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन।
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः॥१-३६॥
धृतराष्ट्र सुतन कौ मारि हमें,
कोऊ हर्ष कदापि कहाँ हुइहै .
आतता यिन मारि के पाप हमें,
निश्चय ही जनार्दन तो हुइहै
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव॥१-३७॥
अथ माधव कोऊ औचित्य नाहीं,
बंधु और बांधव मारण कौ.
परिवार स्वजन को मार कबहूँ,
सुख होत कहाँ कोऊ प्रानिन कौ
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्॥१-३८॥
जद्यपि कुरु लोभ सों भ्रष्ट भयौ,
कुल मित्र विनाश को उद्यत है.
नाहीं पाप को नेकु लखाय रह्यो,
रन जुद्ध करावन कौ रत है
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन॥१-३९॥
सुन मोरे जनार्दन मोरी सुनौ,
कुल नाश को दोष हटावन कौ.
क्यों नाहीं विचार कियौ चहिबौ,
कुल नाश को पाप बचावन कौ
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत॥१-४०॥
कुल नाश जबहीं हुई जावत है,
कुल धरम सनातन नासत हैं.
जब धरम नसावत कुल, कुल के
तब पापहूँ पाँव पसारत हैं
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः॥१-४१॥
कुल नाश जबहीं हुई जावत हैं,
कुल नारिहूँ दूषित होवत हैं.
जब नारिहूँ दूषित होवत हैं ,
तब वर्ण दोष बढ़ी जावत हैं
संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः॥१-४२॥
यहि जाति कुजाती कुल घाती,
कुल, कुल कौ नरक लई जावत है,
यहि सों अति घातक कि इनके,
लोग पितर गिर जावत हैं
दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः॥१-४३॥
इन जाति कुजाति के दोसन सों,
कुल जाति के धरम विनासत हैं.
कुल घाति के धरम सनातन जो,
यहि कारन सों ही नसावत हैं
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम॥१-४४॥
जिनके कुल धरम विनास भये,
तिनके ही नरक मांहीं वास भये .
ऐसों ही जनार्दन जात सुन्यो,
जन ऐसे नरक आवास भये
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः॥१-४५॥
यहि शोक की बात घनेरी विभो !
सुख राज के लोभ सों पाप करैं.
अथ हेतु भये धिक् ! उद्यत जो,
कुल आपुनि नाश ही आपु करें
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्॥१-४६॥
धृत राष्ट्र के पुत्र मोहे रन में,
मारें तबहूँ कल्याण मोरों .
मैं शस्त्र हीन हुई, जुद्ध विरत,
न चाहूँ नैकहूँ जुद्ध करौं
एवमुक्त्वार्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः॥१-४७॥
रथ मांहीं पाछे बैठि गयो,
रन भूमहीं अर्जुन शोक मना.
शर चाप को त्याग दियो कहिकै,
नाहीं जुद्ध करहूँ कबहूँ कृष्णा!