अध्याय ४ / भाग २ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति
यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते॥४-२२॥
सुख आनि, सहज जो आपु मिले ,
मत्सर, सुख, दुःखन ताप परे.
रहे सिद्धि-असिद्धिन में समता,
बिनु बंधन, कर्म तथापि करे
गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते॥४-२३॥
बिनु मोह के कर्म करै ज्ञानी,
सब करमन यज्ञ कौ भाव धरै,
तस मुक्त जनान के कर्म-अकर्म,
न कर्तापन को भाव करै
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥४-२४॥
हवि-अग्नि , हुतं अर्पित सबहिं,
सब ब्रह्म के रूपहीं ब्रह्म ही है,
अथ ब्रह्म के करमन लीन जना,
कौ, लक्ष्य सबहिं कछु ब्रह्म ही है
दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते।
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति॥४-२५॥
देवन के पूजन रूप यज्ञ,
कुछ योगी ताहि उपासत हैं,
परब्रह्म रूप अग्नि में कोऊ,
तौ यज्ञ सों यज्ञ उपासत हैं
श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति॥४-२६॥
सब इन्द्रिन कौ संयम रूपी,
अग्नि में यज्ञ करै योगी,
कुछ इन्द्रिय रूपी अनल हवन,
शब्दादि विषय को करै योगी
सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते॥४-२७॥
कुछ योगी प्राणं इन्द्रिन कौ,
व्यापार, ज्ञान सों दीप्त करैं.
अथ ब्रह्महिं योग रूप अग्नि
सों ज्योति हवन की प्रदीप्त करैं
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः॥४-२८॥
तप योग अहिंसा व्रत अध्ययन ,
स्वाध्याय ज्ञान के यज्ञन सों.
धन दान सों यज्ञ करत कोऊ
कोऊ यज्ञ करत प्रभु चिंतन सों
अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः॥४-२९॥
कुछ वायु अपान में प्राण वायु,
कुछ प्राण अपान हवन करते.
कुछ प्राण अपान की रोक गति,
प्राणायाम परायण हो रहते
अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः॥४-३०॥
कुछ योगी नित्य आहार करें,
प्राणों का प्राण में यज्ञ करें.
जिन यज्ञ सों पाप विनाश भये,
तिन होत यज्ञ सों विज्ञ नरे
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम॥४-३१॥
जिन यज्ञन अमृत भोग लियो ,
तिन ब्रह्म परम मिलिहैं -मिलिहैं.
बिनु यज्ञ यहॉं सुख नेकु नहीं,
पर लोकहीं केहि विधि सुख पइहैं
एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे॥४-३२॥
अस बहु विधि , यज्ञ तौ वेदन की,
वाणी माहीं विस्तार भये,
तिन तत्व सों जानि के पार्थ प्रिये !
भाव बंधन काट के पार भये
श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते॥४-३३॥
इह लौकिक यज्ञ सों ज्ञान यज्ञ,
तौ होत परन्तप! उच्च महे.
हे पार्थ ! करम सगरे जग के,
तौ ज्ञान में शेष ही होत अहे
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः॥४-३४॥
नत भाव प्रणाम, विनत मन सों,
करी प्रश्न कौ, ज्ञान कौ, जाननि कौ.,
उपदेश तोहे करिहैं -करिहैं,
तत्वज्ञ तौ तत्व के ज्ञानिन कौ
यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव।
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि॥४-३५॥
जेहि जानि के मोह तो शेष भयौ ,
और ब्रह्म कौ ज्ञान विशेष भयौ.
आपुनि जैसो प्रति प्राणी लगे,
जस प्रानी में ब्रह्म प्रवेश भयो
अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि॥४-३६॥
सब पापिन सों तू पापी अधम,
तोऊ ज्ञान की नाव सों निश्चय ही,
मिटहै सब पाप धनञ्जय हे!
तरि जइहो तुम बिनु संशय ही
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा॥४-३७॥
धधकात अगनि जस हे अर्जुन!
करी देत भसम सब ईंधन कौ.
तस ज्ञान सरूप अगनि भारत,
भस्मी वत करवत करमन कौ
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति॥४-३८॥
कब होत कोऊ पावन कर्ता,
जग मांहीं ज्ञान समान कोऊ.
कियौ योग सिद्ध जिन अंतस में ,
आभास करत जानत सोऊ
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥४-३९॥
जिन इन्द्रिन जीत लियो जन वे,
तौ ज्ञान कौ निश्चय ही पइहैं.
यहि ज्ञान सों ब्रह्म को नेह मिले ,
अथ शांति परम पइहैं-पइहैं
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः॥४-४०॥
दुविधा, बिनु ज्ञान है जाके जिए,
श्रद्धा सों हीन हैं जाके हिये.
तिन लोक न ही परलोक मिले,
परमारथ नाहीं ताके लिए
योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम्।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय॥४-४१॥
जिन बुद्धि समत्त्वन योगन सों,
भगवत अर्पित सब कर्म किये,
जिन ज्ञान सों शेष भये संशय,
तिन कर्म किये पर नाहीं किये
तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः।
छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत॥४-४२॥
अथ योगस्थित हुइ जा अर्जुन!
दृढ़ चित्त मना हो प्रबुद्ध करौ,
हिय कौ संशय निज ज्ञान कटार सों,
काटी, उठौ अब जुद्ध करौ