अध्याय ६ / भाग २ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते॥६- २२॥
परब्रह्म को पाय जो लाभ मिलै,
तस लाभ लगे नाहीं कोऊ .
अस योगी डिगत नाहीं दुखन सों,
बिनु संशय ब्रह्म मिळत सोऊ
तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा॥६- २३॥
दुःख मय जग सों यहि योग भाग,
अति परे घनौ लइ जावत है.
उकताए भये चित्तन सों परन्तप !
नैकु समझ नाहीं आवत है
संकल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः॥६- २४॥
सब चाह कामना तजि ईहा,
जो उपजत है संकल्पन सों,
मन सों इन्द्रिन कौ साधि सके,
तौ होत विमुक्त विकल्पन सों
शनैः शनैरुपरमेद्बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत्॥६- २५॥
नित नैकु निरंतर नियमन सों,
नित नाम नियंता कौ ध्यावे.
मन-बुद्धि की थाम चपलता कौ,
परब्रह्म ना और कछु भावे
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥६- २६॥
चपला मन जग मांहीं विचरे,
जेहि कारण सों तनि सोच जना ,
वश मांहीं करौ तेहि कारण कौ,
संयत मन ब्रह्म कौ ध्यावौ मना
प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्।
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्॥६- २७॥
भये शांत रजोगुण जिन-जिन के ,
मन पाप विहीन भये सों भये.
तिन ही आनंद कौ पाय सके,
परमानंद लीन भये सों भये
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते॥६- २८॥
योगी जो पाप विहीन भये ,
तिन आत्मा कौ परमात्मा में,
वे नित्य अनंत अनंता कौ
आभास करत हैं आत्मा में
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः॥६- २९॥
अस योगी भाव समत्व हिये
आपुनि जस देखि रह्यो जग कौ,
सम दृष्टि भाव धरि वीतराग ,
जन सिद्ध दिव्य, सत मारग कौ
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६- ३०॥
जिन देखि सके जग श्याम मयी,
तिन सों मैं होत अदृश्य कहाँ ?
न वे अदृश्य होवत मोसों
मोकों भी अन्य, सदृश्य कहाँ?
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते॥६- ३१॥
जिन एकहिं भाव सों वास करै,
सगरौ जग देखत ईश्वर में
व्यवहार तथापि करै जग कौ,
मन माहीं बसत जगदीश्वर में
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः॥६- ३२॥
यहि भांति जो प्रानिन के सुख दुःख,
कौ आपुनि सुख दुःख मान सके,
आपुनि सों देखत जग सगरौ,
वही मधु सूदन पहचान सके
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्॥६- ३३॥
समभाव सों आपने मधु सूदन !
जो ध्यान कौ योग बतायो तथा,
मन होत घनयो चंचल चपला ,
सों मन मेरौ भरमायो यथा
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्॥६- ३४॥
मन कृष्ण ! घनयो दृढ़ चंचल अति,
बल प्रमथन युक्त महीधर है,
वश माहीं कोऊ मन कैसे करै ,
यहि वायु समान ही दुष्कर है
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥६- ३५॥
मन चंचल ढीट दुराग्राही ,
बिनु संशय होत महाबाहो!
कौन्तेय ! निरंतन चिंतन सों,
वैराग सों वश मांहीं, चाहो
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः॥६- ३६॥
उनको दुर्लभ है योग महा,
जिनके के वश में मन होत नहीं,
जेहि के मन वश , तेहि योग सहज ,
है मेरो मत मंतव्य यही
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति॥६- ३७॥
अर्जुन उवाच
मन विचलित जिनकौ कृष्ण भयो ,
तिनकी गति कब क्या होवत है,?
तिन ब्रह्म मिलें या नाहीं मिलें ,
या व्यर्थ ही जीवन खोवत है
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि॥६- ३८॥
अथवा बादल सम बिखर जात,
ना प्रभुवर ना संसार मिलै.
या ब्रह्म योग सों मोहित जन ,
कौ सत्य ही ब्रह्म आधार मिलै
एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः।
त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते॥६- ३९॥
हे कृष्ण! मोरे यहि संशय कौ,
निदान कृपालु करौ सगरौ,
तुमसों दूसर कोऊ और कहाँ ?
तुम ही उद्धार करौ हमरौ
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति॥६- ४०॥
श्री भगवानुवाच
तुम भक्तन कौ , प्रिय पार्थ ! सुनौ,
केहू काल विनाश ना होवत है,
परलोक व् लोक दोऊ संवंरे
नहीं नैकहूँ दुर्गति होवत है
प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते॥६- ४१॥
जब पुण्य नसावत योगिन के,
और योग भी भ्रष्ट भयो जिनकौ,
कछु काल रहत वे स्वर्ग माहीं
कुल श्रेय जनम होवे उनकौ
अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्॥६- ४२॥
अस ज्ञानिन या योगिन कुल में ,
वे लेत जनम जो दुर्लभ है.
जिन योगिन पुण्य तो क्षीण भये,
कुल उच्च जनम तिन संभव है
तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन॥६- ४३॥
शुभ कर्म जो पाछिले तन-मन के,
समभाव की बुद्धि समन्वय सों.
वे आपुनि आपु हे कुरुनंदन!
नित कर्म सों मिलिहैं चिन्मय सों
पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते॥६- ४४॥
विषयन वश वे यदि विवश भये,
तौ पाछिले शुभ अभ्यासन सों.
पुनि ब्रह्म की ओर लुभायो मन ,
जिज्ञासु मिलें निश्चय मन सों
प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्॥६- ४५॥
बहु जन-मन की शुद्धि-सिद्धि ,
बहु जनम जतन अभ्यासन सों,
प्रभु और परम गति पाय सके,
हों मुक्त अनगिनत पापन सों
तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन॥६- ४६॥
ताप कर्म करें और शास्त्र पढें
और जो कोऊ कर्म सकाम करै,
योगी जन इनसों श्रेय पार्थ!
योगी हुए जा मेरौ ध्यान धरै,
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान् भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः॥६- ४७॥
सब योगिन माहीं योगी जो,
अंतर्मन सों मोहे ध्यावत हैं,
अस योगी मोहे अतिशय प्रिय ,
वही मोहे मोसों पावत है