अध्याय ७ / भाग २ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ॥७- १६॥
हे श्रेय भरतवंशी अर्जुन!
विधि चार के भक्त भजें मोहे.
जिज्ञासु, ज्ञानी और दुखी,
कुछ अर्थ के हेतु गहें मोंहे
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः॥७- १७॥
ज्ञानी इन मांहीं भक्त विरल,
तत्त्वज्ञ मोहे अति प्रिय लागे.
मैं इनकौ प्रिय , ये मोरे प्रिय,
अस प्रीति परस्पर ही जागे
उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्॥७- १८॥
यद्यपि प्रिय भक्त मोरे अर्जुन!
सगरे ही होत उदार मना.
पर ज्ञानी उत्तम होत महे
ऐसो कछु मेरौ विचार बना
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥७- १९॥
तत्त्वज्ञन कौ बहु जन्मन के,
तौ अंत में ज्ञान ये होवत है..
सर्वस्व मोरे वासुदेव ही हैं ,
अस संत तौ दुर्लभ होवत है
कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया॥७- २०॥
आपुनि प्रकृति सों प्रेरित और
अवलंबन विषयन कौ करिकै,
पावत हैं उन-उन देवन कौ ,
ध्यावत जिन-जिन चिंतन करिकै
यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्॥७- २१॥
जेहि-जेहि देवन की श्रद्धा सों,
जेहि-जेहि भी भक्त मोहे ध्यावै,
तिन भक्तन की तिन देवन में,
श्रद्घा स्थिर कर फल पावै
स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते।
लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान्॥७- २२॥
अथ मोरे सहाय सों हीं, निश्चय ,
इन देवन सों ही फल पावै..
इच्छित फल पाएं तो पाया करें,
पर मोसों कदापि न मिल पावैं
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि॥७- २३॥
फल कर्म विनासत है, क्योंकि ,
उन अल्प मति अल्पज्ञन के.
भजें देव तौ देव तिन्हें मिलिहैं,
भज मोहे, बने ब्रजनंदन के
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्॥७- २४॥
अविनाशी अजन्मा जानि मोहे,
अल्पज्ञ भ्रमित हुइ जावत है.
मोहे मानुष के जस समुझत है.
ऋत तत्त्व न मोरो पावत हैं
नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्॥७- २५॥
में आपुनि योग की माया सों,
अणु कण-कण माहीं समाय रह्यो.
अज्ञानी जन मेरौ जन्म मरण
पुनि-पुनि होवत भरमाय रह्यो
वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन।
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन॥७- २६॥
कल आज और कल त्रिकाला.
को जाननि देखनि हारा हूँ.
पर श्रद्धा भक्ति विहीनन सों ,
में नैकु न जाननि हारा हूँ
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।
सर्वभूतानि संमोहं सर्गे यान्ति परन्तप॥७- २७॥
इच्छा द्वेषन के कारण ही ,
होवत सुख-दुःख यहि जग माहीं.
अज्ञान सों ही उपजत सगरे ,
यदि ज्ञान हो तौ एकहूँ नाहीं
येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः॥७- २८॥
शुभ करमन सों जिन पुरुषन के,,
सब पाप विनाशत शेष भये.
तिन मोह के द्वंद सों मुक्त भये ,
और मोसों युक्त विशेष भये
जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये।
ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम्॥७- २९॥
जो मृत्यु जरा सों छूटन कौ ,
हुइ मोरे परायण यत्न करै,
जन ब्रह्म सकल आध्यात्म करम ,
कौ जानिकै जीवन धन्य करै
साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः॥७- ३०॥
अधिदैव, भूत और यज्ञन कौ,
श्री कृष्ण सरूप ही जानत हैं..
तिन अंतिम काल प्रयाण में तौ
श्री कृष्णा कौ पहिचानत हैं