अध्याय ९ / भाग १ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे।
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥९- १॥
श्री भगवानुवाच
अति गोप जो ज्ञान वही , अर्जुन!
कौ गूढ़ रहस्य कहहूँ तोसों.
जेहि जानि विषादमयी जग सों,
हुइ मुक्ति, रहस्य सुनौ मोंसों
राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्॥९- २॥
यहि ज्ञान पुनीत है फलदायी,
अति होत सुगम, अविनाशी है.
यहि ज्ञान गुरु, अति गोप महिम,
यहि धर्म मयी सुख राशी है.
अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि॥९- ३॥
यहि ज्ञान के तत्त्व विहीन भये,
तिनके मन श्रद्धा होत कहाँ ?
और ना ही परन्तप मैं उनकौ,
बहु जन्म-मरण तिन होत वहॉं
मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः॥९- ४॥
परब्रह्म प्रभोमय जग सगरौ,
यहि जग मुझ मांहीं समाय रह्यो.
मैं प्रानिन कौ आधार तथापि,
कदापि न नैकु समाय रह्यो
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः॥९- ५॥
कर्ता, भर्ता, हर्ता सबकौ
जग सृष्टि नियंता धारक हूँ.,
सब मोसों, मैं नाहीं उनमें.
अस अद्भुत माया कारक हूँ
यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय॥९- ६॥
जस वायु गगन सों जनमत है,
नभ माहीं बसत अपि नित्य सदा,
तस जग सगरौ , मुझ माहीं बसे.
मोरे संकल्पन वश होत सदा
सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्॥९- ७॥
यहि कल्प के अंत में हे अर्जुन!
मुझ माहीं सबहिं लय होवत है.
पुनि कल्प के आदि में केवल बस,
एक कृष्ण , रचयिता होवत है
प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्॥९- ८॥
मम त्रिगुणी माया के वश ही,
मैं रचना कौ व्यवहार करूँ.
अनुसार करम सब प्रानिन के
पुनि-पुनि मैं यह संसार रचूँ
न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु॥९- ९॥
फल आस विहीन उदासी वत
हे अर्जुन ! होत मैं करमन में,
सों कर्तापन कौ भाव मोहें ,
नहीं बांधत कर्म के बंधन में
मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते॥९- १०॥
जग सकल चराचर और माया,
मोरे सकाश सों पार्थ ! सुनौ.
यहि हेतु सों पुनि आवन-जावन ,
कौ चक्र जगत अथ, अर्थ गुनौ
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्॥९- ११॥
मैं एकही ब्रह्म सकल जग कौ,
पर मूढ़ न मोहे जानाति हैं.
तन पाय के मानव को तबहूँ ,
मोहे तुच्छ नगण्य बतावति हैं
मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः।
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः॥९- १२॥
जिन व्यर्थ आस और कर्म गहें
और व्यर्थ कौ ज्ञान वे मूढ़ जना.
तिन आसुरी तामस वृत्ति अधम
अज्ञानहूँ तिन माहीं होत घना
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्॥९- १३॥
जिन दैविक भावन के ज्ञानी ,
मोहे सृष्टि मूल में जानाति हैं .
अविनाशी जानि अनन्य मना,
मोरो नित्य भजन वे गावति हैं
सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते॥९- १४॥
जिन भक्तन दृढ़ मन भक्ति भजन,
मोहे पाउन हेतु प्रयास करै.
मम भक्ति, अनन्य सों ध्यान करै,
और बारम्बार प्रणाम करै
ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते।
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्॥९- १५॥
जिन पूजे रूप विराट मेरौ,
तिन जित देखे, तित श्याम मयी,
कोऊ सेवक स्वामी भाव भजे,
कोऊ यज्ञ रूप सों ज्ञान मयी
अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्॥९- १६॥
मैं यज्ञ सुधा घृत मन्त्र हूँ मैं,
मैं पावक, अन्न, हवन मैं हूँ.
मैं कर्म क्रतु औषधि मैं हूँ,
जड़ - चेतन माहीं बसत मैं हूँ
पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।
वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्साम यजुरेव च॥९- १७॥
फल कर्म-प्रदाता करमन कौ,
धारण कर्ता, आधार हूँ मैं.
पितु-मातु पितामह, गेय शुचि;
ऋग, साम, यजु ओंकार हूँ मैं