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अनचहा / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
मैंने नहीं चाहा --
दृष्टि-पथ पर दूर तक
रंगीन सपनों के चरण
न घूमें!
मैंने नहीं चाहा --
जीवन के गगन में
सावनी के स्वर
न गूँजें!
रस-वर्षिणी
घन बदलियाँ
न झूमें!
मैंने नहीं चाहा --
मधु कल्पनाओं के
विफलता की थकन से
पंख जाएँ टूट,
यौवन
उमड़ती ज्वार की लहरें
न चूमे !
पर,
सब अनचहा होता गया,
स्वप्न सारे
हो गये विकलांग,
सावन की सरसता
खो गयी,
अनुरक्त अन्तस की
मधुरता जब
विषैली हो गयी !