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अनचिन्हार अन्हरिया / भास्करानन्द झा भास्कर
Kavita Kosh से
मंद -मंद गतिसं
बहैत मातल पवन
बहका दैत अछि
निश्छल मोनकें...
किछु अन्तरालक बाद
बरखाक किछु बुन्न
हरिया दैत अछि
मौलायल मोनकें...
सिक्त शीतलताक
किछु आत्मीय स्पर्स
जगा दैत अछि
किछु नुकायल हर्ष...
क्षणिक आह्लादक
दीर्घकालीन अवसाद!
आ अन्ततोगत्वा
किछु मधुर, किछु तिक्त
नैसर्गिक अनुभूति
संग हमर मोन
आ मोन संग हम
भूतला- हेरा जायत अछि
चकमक दुनियाक
अनचिन्हार अन्हरियामे
सहस्त्रमुखी भीड़क मध्य!