अनजानी अन्चीन्हि-सी इक दुनिया नई बसानी है
बनी बनाई लीक से हटकर राह नयी अपनानी हैं
जख्मों के आकार बहुत है
पीडा के अम्बार बहुत हैं
आँसुओं से चौक पूरते
दर्दों के त्यौहार बहुत हैं
फ़िर भी हर द्वारे के माथे बंदनवार सजानी है
अंधियारे के हाथों देखी
उजियारे को सूली
गगन चूमते भवनों में तो
हवा भी रस्ता भूली
तहज़ीबो के जंगल में इक ख़ुशबू नयी उगानी है
दौड़ती हाँफती शामें है
और शोर से बहरी रातें
रेशम के पर्दों पर ठहरी
गूँगी गूँगी प्रातें
ओस से भीगी दूब पर लेटी
सुबह एक उठानी हैं
नयी उम्मीदों के दोने में
नन्हा दीप जलाया है
सान्झ ढले सोती लहरों के
उर पर उसे बहाया है
जीवन नदिया तीरे अब तो संध्या आरती गानी है