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अनजाने चुपचाप / नेमिचन्द्र जैन

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अनजाने चुपचाप अधखुले वातायान से
आती हुई जुन्हाई-सा ही
तेरी छबि का सुधि-सम्मोहन
आज बिखर कर सिमिट चला है मेरे मन में ।
छलक उठा है उर का सागर
किसी एक अज्ञात ज्वार से
किन सपनों के मदिर भार से
किन किरनों के परस-प्यार से
पल भर में यों आज अचानक ।
यह किस रूप-परी विरहिन के उर की पीड़ा
मेरे जी में भी चुपके से तिर आई है
यों अनजाने ?
गूँज उठा है अन्तर-जीवन
किस फेनिल अरुणाभ राग से ?
किन फूलों के मधु पराग से
पुलकित हो आया है
आकुल मधु-समीर ?
जी के इस कानन में भी फूली है सरसों,
इस वन का भी कोना-कोना
है भर उठा अकथ छलकन से,
प्राणों के कन-कन से
झरता मौलसिरी के फूलों-सा
अम्लान स्नेह ।
तुम हो मुझ से दूर कहीं पर
यौवन के प्रभात में विकसित
डाली पर झुक-झुक
बल खाती
सहज सरल निज क्रीड़ा में रत
कुन्द कली-सी ।
यह मधुमास सजीला चुप-चुप
तेरे उर के आंगन को
गीला कर-कर जाता होगा री,
परिमल के मिठास से भाराकुल
यह बासन्ती बयार
उलझ-उलझ कर खोल-खोल देती होगी
वह तेरा कच-संभार सुरभिमय ।
कुछ अनमनी उदासी से तुम
सहज भाव से
अपने विकच लोचनों के ऊपर से--
वे लोचन जिनमें प्रति पल में
छलक-छलक आती है बरबस
छनी हुई करुणार्द्र मधुरिमा
जिन में हो कर सुमुखि,
तुम्हारे सहज स्नेह का सब गीलापन
बिखर-बिखर आता है--
किस रजनीगंधा के मद से सदा लबालब
भरे हुए उन चंचल नैनों के ऊपर से
हटा-हटा देती होंगी वे केश हठीले ।
यह चांदनी निहार अचानक
उन अनार की अविकच कलियों-से होठों से
तभी तुम्हारे मन का सब अनजाना प्यार लजीला
बह-बह आता होगा
स्वर-धारा में ।
पवन-गुंजरण से भी कोमल, अति कोमल
वाणी का स्वर वह
गूँज-गूँज उठता होगा
अग-जग में ।
मैं एकाकी,
मेरे आगे टेढ़ा-मेढ़ा बिखरा फैला है
अनन्त पथ अब भी बाक़ी ।
बिना तुम्हारे
इस बसन्त रजनी की दूध भरी छाया में
चला जा रहा हूँ मैं पग-पग
बिना विचारे, बिना सहारे ।
यह मदिरा-सी तरल जुन्हाई--
किसी रूपसी सुरबाला के तन की आभा-सी जो छाई--
भर जाती है मेरे मन में
तेरी छबि का सुधि-सम्मोहन,
और प्यार से
पिघल-पिघल कर
मेरा दुख हो आता पानी ।

(1939 में आगरा में रचित)