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अनजाने हादसात का खटका लगा रहा / नश्तर ख़ानकाही

अनजाने हादसात का खटका लगा रहा ।
नींद आ रही थी रात मगर जागता रहा ।

वो सरफिरी हवा थी कि आई गुज़र गई
इक फूल था जो दिल की तरह काँपता रहा ।

मैं क्या था शाख़-ए-ज़र्द<ref>पीली टहनी</ref> का इक बर्ग-ए-ख़ुश्क<ref>सूखा पत्ता</ref> तर
निकला जो आँधियों से तो शोलों से जा मिला ।

मेरा ही रूप था जो पस-ए-पर्दा-ए-वजूद<ref>अस्तित्व के पीछे</ref>
नफ़रत से सारी उम्र मुझे देखता रहा ।

तेज़ आँधियों में गर्द-ए-सफ़र<ref>सफ़र की धूल</ref> तक न बच सकी
मत पूछ मुझसे अब मेरे दामन में क्या रहा ।

पानी के आर-पार निगाहें न जा सकीं
दरिया इक और भी तह-ए-दरिया<ref>दरिया के नीचे</ref> छुपा रहा ।

शब्दार्थ
<references/>