अनजाने हादसात का खटका लगा रहा ।
नींद आ रही थी रात मगर जागता रहा ।
वो सरफिरी हवा थी कि आई गुज़र गई
इक फूल था जो दिल की तरह काँपता रहा ।
मैं क्या था शाख़-ए-ज़र्द<ref>पीली टहनी</ref> का इक बर्ग-ए-ख़ुश्क<ref>सूखा पत्ता</ref> तर
निकला जो आँधियों से तो शोलों से जा मिला ।
मेरा ही रूप था जो पस-ए-पर्दा-ए-वजूद<ref>अस्तित्व के पीछे</ref>
नफ़रत से सारी उम्र मुझे देखता रहा ।
तेज़ आँधियों में गर्द-ए-सफ़र<ref>सफ़र की धूल</ref> तक न बच सकी
मत पूछ मुझसे अब मेरे दामन में क्या रहा ।
पानी के आर-पार निगाहें न जा सकीं
दरिया इक और भी तह-ए-दरिया<ref>दरिया के नीचे</ref> छुपा रहा ।
शब्दार्थ
<references/>