अनन्त आधी रात को / शंख घोष / जयश्री पुरवार
बारिश हुई थी राह में उस दिन
अनन्त आधी रात को
नीड़ बिखर गया था, पेड़ों को मिली थी हवा
सुपारी की डाल की फुनगी पर रूपहले जल की आभा थी
और थी अन्धेरे में — हृदय विहीन अन्धेरे में
ज़मीन पर सुला दी गई नाव, बारिश जम गई थी उसके सीने पर
भीगी खाल की सांसें शून्यता के भीतर निस्तब्ध हो गई थीं
मिट्टी और आकाश ने केवल पुल बनाकर बाँधी थी धारा
जीवन-मृत्यु के ठीक बीच वायवीय जाल ने
कम्पन के साथ उतारा था अतीत, अभाव और अवसाद को
प्रस्तर प्रतिमा ने इसलिए पत्थर पर रखा है, अपना सफ़ेद चेहरा
और उसके चारों ओर झरती रहती है बारिश अविरल
बारिश नही है हरसिंगार, चाँदनी और गन्धराज है वे बून्दें
मिटा लेना चाहते है अपने जीवन का शेष अपमान
नीड़विहीन शरीर के उड़ते हुए मलिन इशारों से
बारिश हुई थी उस दिन सीने में अनन्त आधी रात को
मूल बांग्ला से अनुवाद : जयश्री पुरवार