अनलॉक 0.1 / मृदुला सिंह
रेलों का दृश्य है
दृश्यों का रेला है
पर्दा गिरता नही कोई
और नया पर्दा उठ जाता है
वह जवान जो गोलगप्पे का ठेला लगाता था
सब्जी का ठेला लिए जा रहा है
और वह बुजुर्ग जिसकी चाय की गुमटी
बन्द पड़ी है दो महीनों से
साइकिल के हैंडल में झोला टांगे
समोसे लिए घूमता है गली गली
उसकी आवाज में जोर है
जो खत्म होते मिन्नत में बदल जाती है
इनकी पीठों पर
परिवार के दो जून के भात का वजन लदा है
जो दृश्य में नही दिखता
वैसे भी भूख निराकार है
यह जिसका पेट है उसे ही समझ आता है
इन दिनों का स्ट्रीट मार्केट
ओ ईश्वर जानते हो!
यह तुम्हारी शक्ल सा दिख रहा है
पुरानी अधफटी धोतियों पर
लगे हैं जरूरी घरेलू सामानो की दुकाने
आत्मा को तर करने वाले माटी के बर्तन सजे हैं
और सजी हैं भाजी तरकारी
बिल्कुल बेतकल्लुफ कायदे कानून से
ये छोटे रोजगारी हैं दिहाड़ी हैं
खट रहे हैं कि काम काज में छूट मिली है
जिसे लोग अनलॉक कह रहे है
बासी खाकर तपे इन लोगों की
इम्युनिटी बहुत मजबूत है
ये शुरू से आत्मनिर्भर लोग है
इनकी महामारी कोरोना नहीं भूख है
लड़ रहे हैं जिससे सदियों से
समझ नहीं है इनमे
पढ़ना लिखना नही आता
कोरोना की जगह खाना लिखते हैं
गणित में तो खैर कच्चे ही हैं
इन्हें नही आता गिनना
कि बड़ी बड़ी राशियों में से
कितना इन तक पहुंच पाता है
इन्हें बस आता है
आती जाती सांसें गिनना
और लगातार लड़ना
भूख की महामारी से !