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अनहद के स्वर / विमल राजस्थानी
Kavita Kosh से
सुन रे मन ! तू अनहद के स्वर छोड़ डगर बाहर की
अंतर पथ पर कोमल युगण चरण धर
सुन रे मन तू अनहद के स्वर
काशी-काबा
शोर-शराबा
तीरथ-संगम
सब जड़-जंगम
चाँद-सितारे
व्यर्थ निहारे
तुम्हें पुकारे
उर-अभयन्तर
पल-पल तेरा मरण-शरण रे !
क्यों न करे ‘सोह्म’ ही वरण रे !
सहस्रार से सुधा झर रही है
झर-झर-झर
सुन रे मन ! तू ‘अनहद’ के स्वर
ये जो हैं रे चार दिशाएँ
ऊपर-नीचे, दाँयें, बाँयें
ये सब केवल भ्रम फैलाएँ
मन को भटकायें, अटकायें
पोथी-पतरे, थोथी-सतरें
भूलो मत रे ‘ढाई आखर’
सुन रे मन ! तू ‘अनहद’ के स्वर
देह-चदरिया झीनी-झीनी
जनम-जनम मटमैली कीनी
तज-तज दीं ‘कैरी’ रस भीनी
छिलके और गुठलियाँ बीनी
मरूथल में ही भटका-भटका
लिए-लिए भीतर रस-निर्झर
सुन रे मन तू ‘अनहद’ के स्वर