अनायास / राजकमल चौधरी
फिर भी कभी चला जाऊँगा उसी दरवाज़े तक अनायास जैसे,
उस अन्धियारे गलियारे में कोई अब तक रहता हो ।
फिर भी, दीवार की कील पर अटका दूँगा नया कैलेण्डर,
किसी को यों ही पत्र लिख दूँगा — मैं बीमार हूँ
सीने पर अधखुली किताब रखकर सो जाऊँगा;
चाय बर्फ़ हो रही है कहकर, कोई मुझे जगाए नहीं
नन्हा-सा कोई बच्चा मेरे बिस्तर पर आए नहीं,
मैं बहुत बीमार हो गया हूँ !
धीमी चलती हुई किसी ट्राम पर चढ़ जाता हूँ,
पढ़ता चलता हूँ दुकानों के साइनबोर्ड,
फ़िल्मों के पोस्टर, नियॉन-अक्षरों में बाँधे गए गीत,
किसी की आँखों में क्या-क्या देखता रहता हूँ,
किसी को अनदेखे ही मुस्कुराता हूँ;
कोई अनलिखी कविता दुहराता हूँ। शाम की रोशनियाँ
दसमंज़िले मकानों से उतरती हुई
मेरी बीमार बाँहों से लिपट जाती हैं ।
फ़ुटपाथों पर रुके हुए लोगों की लगातार भीड़
मुझसे शहराह पूछती है। मैं —
सबको ग़लत गलियों में ले जाता हूँ
(यही मेरी क़िस्मत है !) नहीं शरमाता हूँ !
फिर किसी बस-स्टॉप के पास रुका रहता हूँ;
रुका हुआ हूँ
नींद में हूँ। फिर भी अनायास कोई मुझे पुकारेगा,
नक़ाब कितने भी लगाए फिरूँगा, लेकिन,
वह मुझे पहचानेगा । मुझे वापस बुलाने के सिवा
उसने कोई काम नहीं सीखा है ।