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अनावश्यक / मोना गुलाटी

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काँपती टाँगों के बीच दंशित झाड़ियों ने
क्यों ढक लिया है
सारे देश को ।

प्रदर्शनों के मध्य
क्या सोचते हैं नपुंसक और हिजड़े।

मैंने बौने क़द के लोगों से घृणा करनी छोड़ दी है
और फोड़ दी हैं उनकी आँखें
अपनी साँवली देह को फेंक दिया है
अजनबी खण्डहरों में ।
मुझे नहीं है उसकी आवश्यकता ।

अक्सर अपना मज़ाक़ करते
ठहाकों के बीच
सहमत हूँ ।

मुझे दुख है
अस्तंभित जागृतियों, गिरगिटी स्वीकृतियों और
गलति जुगुप्साओं का ।

प्रतीक्षारत भीगते हैं पुलों के नीचे
मांसल साये ।

सब सुखी है
क्लीवों से ढसे शहर में
केवल
मैं नहीं !