भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अनुकंपा / देवेश पथ सारिया
Kavita Kosh से
मुझे मंद कहने वालो
ये चमकीले जूते उतारो
आओ फिर दौड़ते हैं
दोनो नंगे पाँव
तुम्हारे जूतों की कीलें
बिछाती आई हैं
काँटे हमारी राहों में
जब तुम्हारे शाही जूते
दौड़ जाते हैं मंद बयार
और मद्धम चाँदनी
चूमते हुए
तब हमें परोसा गया है
ख़ुश्क रास्ता
जहाँ हज़ार नक्कारखाने हैं
और लाख मक्कार साहूकार
जो करते हैं सौदा
हमारी स्वायत्तता का
दौड़कर लहुलूहान
हमारे नंगे पैर
देख रहे होते हैं
अंतहीन लक्ष्य
और हाथ में खिंची
भाग्य की लकीर
हो जाती है
दूसरे के हाथ में स्थानांतरित
इस बीच तुम
सूखे मेवे और ताज़ा फल
खाते रहे हो
‘अनुकंपा’ के जूते पहने हुए