अनुच्चरित / आद्याशा दास / राजेंद्र प्रसाद मिश्र
पहाड़ में मैं
एक पगडंडी बनूँगी
शायद वह आए ।
उस पगडंडी के दोनों ओर
चाय बागान बन
वेलवेट कार्पेट-सी बिछ जाऊँगी
शायद वह उस पर घड़ी भर बैठ ले ।
उसके बगीचे में मैं बार्च पेड़ बन जाऊँगी
शायद वह आए और थोड़ी छाया हूँढ़े !
पाइन-पत्तों की नस-नस में
मैं हवा बनकर बहूँगी --
शायद वह आए और
पेड़ के नीचे घड़ी भर थकान मिटाए !
धरती से चाहे उड़ जाऊँगी आकाश में
फिर से लौट आऊँगी धरती पर
मई महीने के अपराह्न में
बारिश की हल्की बूंद बन.,
शायद वह आए और
ढूँढ़े ज़रा-सी ठंडक ।
नीलगिरि पेड़ की सपाट सीढ़ी पर क़दम रख
आसमान से उतर आऊँगी
मार्च की सुबह की धूप बन
पसार दूँगी खुद को
नीलगिरि पहाड़ के अरण्य और उपत्यका में
शायद बह आए और
ढूँढ़े ज़रा-सी उष्मा ।
वह आया भी –
पर आया पुष्पक यान में
धूप, बारिश, हवा, पाइन और बार्च
चाय बागान का वेलवेट गलीचा
सब बेकार गए
इंसान, इंसान के भीतर का संबंध
क्षणिक भ्रम के सिवा कुछ नहीं
यह प्रमाणित करके
वह इंसान से ऊपर रह गया
और सारी धरती को
एक अनुच्चरित प्रश्न बना गया ।