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अनुपम गाथा / पुष्पिता
Kavita Kosh से
आँखें
चाँद से पीती हैं पूरी चाँदनी
साँसें
रात रानी से खींचती हैं प्राणजीवी सुगंध
अस्तित्व
धूप से ग्रहण करती है उजास का पूर्ण सुख
मेघ से
भीज उठती है वसुधा की आत्मा की पोर-पोर
वैसे ही
हाँ, वैसे ही
तुमसे लेती हूँ तुम्हें
तुम्हारे अपनेपन को
जैसे - अंजलि में सरिता का जल
अधरों पर सागर-शंख
आँखों में ऋतुओं की गंध
वक्ष में स्वप्न के अंतरंग।
नदी के द्वीप-वक्ष पर
लहरें लिख जाती हैं
नदी की हृद्याकांक्षा
जैसे - मैं।
सागर के रेतीले तट पर
भंवरें लिख जाती हैं
सागर की स्वप्न तरंगें
जैसे - तुम।
पृथ्वी के सूने वक्ष पर
कभी ओस
कभी मेघ-बूँद
लिख जाती हैं
तृषा-तृप्ति की
अनुपम गाथा
जैसे - मैं...।