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अनुबन्ध / अर्चना कुमारी
Kavita Kosh से
अभिशप्त रहा है अतीत
वर्तमान के दोषारोपण के लिए
कदम-दर-कदम बढते हुए
भविष्य की ओर
पूर्वाग्रह, आलोचना हो जाती है
और आलोचना, समीक्षा
आत्मा की दिव्यता में
दृष्टि स्वस्थ होकर पुनरावृत्ति करती है
पुरातन अवलोकनों का
नव्यागत काल के कोरे कागज पर
लिखी जाती है
पुरानी कहानी, नये तेवर में
मिटाकर काली स्याहियों के धबे
रेखांकन का लाल रंग हरा हो जाता है
मन की आवृत्ति की धुन
गुनगुन शरद की धूप होकर
मुंडेर के कबूतरों के दाने में बदलकर
अहसास के पंख को परवाज़ देते हैं
समय ही बदलता है
समय के अर्थ
और बदलता है रंग भी
समय ही समय का
मेरे हिस्से के काले समय का
नया कलेवर
हरा रंग हो तुम
लाल होते हैं सदा
प्रेम के अनुबन्ध।