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अनुभूति / शिवदेव शर्मा 'पथिक'
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थिरक रही अनुभूति सर्जन की, पागल मन की बात में!
काँटों में खिलती हैं कलियाँ,
हीरे मिलते धूल में,
मिले गरल में सुधा किसी को,
मधु मिलता है फूल में।
मुस्काती रेखा प्रकाश की, भादो की हर रात में!
पागल की, प्रेमी की, कवि की,
लीक सदा से और है।
पागल झूमे, प्रेमी चूमे
कविता ऐसी दौड़ है!
पागल, प्रेमी कवि जीते हैं आँधी, झंझावात में!
पनप रही चेतना दूब
मरघट के जलते खेत में,
चला कारवाँ हरे भरे
काँटे उग आए रेत में।
गति मिलती राही को पथ के शूलों में आघात में!