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अनुरोध / जगन्नाथप्रसाद 'मिलिंद'

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बेध दुर्ग नीरव जड़ता का
बंधन मुक्त करो ये प्राण,
स्वर के उच्च शिखर से, सुंदरि,
छेड़ो एक बाण-सी तान।
जीवन पथ की अमिट अमावस बने निमिष में स्वर्ण-प्रभात;
बिखरा दो उदार अधरों से प्रथम किरण-सा स्मित अवदात।
एक अनिंद्य रूप की ज्वाला,
देवि, जला दो त्रिभुवन में,
जिसमें ‘अशिव’, ‘असत्य’, ‘असुंदर’,
हो सब भस्म एक क्षण में।
रँग दो मेरे स्वप्न, सजनि, सब, जीवन-मरण अरुण कर दो;
जन्म-जन्म का शून्य पात्र यह आज बूँद-भर में भर दो।