अनुशासन बन्धन / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’
अनुशासन बन्धन तँ उकरू लगैत अछि
आ स्वेच्छाचारिते स्वतन्त्रता बुझाइत अछि
नहि तँ, स्वतन्त्र देशकेर निवासीक हेतु
अनुशासन सहज ओकर स्वाभाविक धर्म थिकै
से जँ नहि बुझलक तँ भेल ओ स्वतन्त्रा कोना?
ताहि हेतु शासनकेँ अंकुश लगबय पडै़क
जकरा कनेको कर्त्तव्य बोध छैक अपन
तकरा लै निश्चय कलंकक ई बात थिकै
किन्तु की समाजकेँ कर्त्तव्यबोध छैक अपन
एहि जटिल प्रश्रक तँ उत्तर तकबाक होयत
से स्वेच्छाचारिता तँ सीमाकेँ टपने अछि
कोन क्षेत्र शेष जतय देखि नहि पड़ैत हो?
ज्ञान प्राप्ति हेतु पहिल सीढ़ी तँ श्रद्धाथिक
किन्तु आइ श्रद्धेसँ सबकेँ असर्द्धा छै
जखनहि जे जेठ भेल तखनहि से दूरि गेल
बूढ़ आ पुरान लोक बुद्धि सँ विहीन मुदा
काल्हुक जे जनमल से बुद्धिक बखारी अछि
टोकबै कनेको तँ चट दऽ मुँह दूसि लेत
कहि देत जाउ जाउ, अनका पड़तारिऔक
हम तँ अभिमन्यु थिकहुँ, गर्भेसँ चक्रव्यूह
भेदनकेर प्रक्रिया सिखनहि बहरयलहुँ अछि।
बेसी किछु बाजब तँ मानि लेत महादेव
बं बं बू कहि कऽ झट ठामहि ओंघड़ाय कहत
कयने छी आटाँकेँ गील आनि घरसँ तेँ
बिनु खुर पुजाइ लेने कलमे उठाउ किएक?