अनोखी राधा-माधव-प्रीति।
नहीं बासना तनिक, एक-बस, प्रियतम-सुख-रस-रीति॥
नहिं भ्रम, नहिं मोह, नहिं बंधन, नहीं मुक्ति की चाह।
नहीं पाप, नहिं पुन्य पुन्य-रस-सागर भर्यो अथाह॥
जीवन कौ नहिं हेतु अन्य कछु, नहिं मरजादा-सेतु।
फहरि रह्यौ नित अमित प्रेम को पावन मंगल-केतु॥
सुद्ध सुभाव अनन्य प्रीति-रस, नहिं बिभिचारी भाव।
नित्य मिलन में नित्य मिलन को सुचि सुख, सुचितम चाव॥
नित्य नवीन बिमल गुन-दरसन, निरगुन रति निष्काम।
नित नव चित्त-बिाहर, बाढ़त सुचि लावन्य ललाम॥
नहीं भोग, नहिं त्याग, नहीं कछु राग, नहीं बैराग।
दोउन में दोउन के सुखहित छाय रह्यौ अनुराग॥
दोउ प्रबीन, दोउन के मन की जानत दोऊ बात।
दोउ सेवत नित, सेवा-हित नित दोऊ नित ललचात॥
नित्य एकरस, एकप्रान दोऊ, नित्य एक ही टेक।
नित्य मिलन कौं आतुर, नित मिलि रहे, न न्यारे नेक॥