अरुणाभ कमल पर अलि सी
दोनों आँखें मदमाती
मैं विकल हुआ करता था
जब घूम कभी वे जातीं।। ।।६१।।
मुख कमल बीच भ्रमरी-सी
घूमा करती रसना थी,
वीणा के विकल स्वरों में
मादकता की रचना थी ।।६२।।
नवजात पत्र से उसके
अरुणाभ अधर थे पतले,
वर वचन शिशिर कण-से थे
पंकज दल पर से फिसले ।।६३।।
रक्तिम अधरों पर से थी
मुस्कान फिसलती ऐसी
चन्द्रा की शुभ चन्द्राभा
ज्यों निकल रही हो वैसी ।।६४।।
बेसुध अधरों का मधुरस
अंजलि भर - भर कमलों की
नित पान किया करता था
मृदु गुंजन उन विमलों की ।।६५।।