परिमल - पूरित मलयज-सी
आतीं नि:श्वास हिलोरें ,
मन - हृदय बेध देती थीं
पक्ष्मल - कटाक्ष की कोरें ।७१ ।।
रोमिल शिरीष - वैभव सम
थे कान अनोखे चोखे
अथवा रसाल की फाँकें
रक्खी थीं मधु में धो के ।।७२।।
बाहें कुसुमित राहों - सी
चाहों की नन्दन वन - सी
पुतली-सी अतिशय कोमल
मंजुल जीवन के धन - सी ।।७३।।
नव कमल नाल-सी मंजुल
अतुलित सौन्दर्यमयी थीं
उनकी ईषत् मुस्काहट
मेरे हित नयी-नयी थी ।।७४।।
थे खिले इन्द्रधनु नभ के
मानो दो, दो कोने में
अथवा दो दल सरसिज के
हों लटक गये सोने में ।।७५।।