मंगल मरन्द की मृदुता
मल दी नितम्ब में कितनी
फिसलन चिकनाहट रहती
कदली- स्तम्भ में जितनी।।८१।।
अश्रुत अदृष्ट अनलंकृत
कल्पनातीत वह छवि थी
साकार सिद्धि थी अथवा
सौन्दर्य यज्ञ के हवि की ।।८२।।
अम्बर में इन्द्रधनुष - सी
घन सघन बीच चपला-सी
वह मूर्ति बसी नयनों में
रजनी में चन्द्रकला - सी ।।८३।।
सौन्दर्य पराजित होकर
था दूर लजाता खुद से
वह रूप देख होते थे
मेरे दृग-मृग बेसुध- से ।।८४।।
वह थी मधुमयी कहानी
वह कैसा था मधुमय स्वन!
मैं था वह मधुरस पीता
उस माधुरि में मधुमय बन ।।८५।।