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अन्तर्दाह / पृष्ठ 19 / रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध'
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स्वप्नाभा में आयी वह
जगने में रूठ चली थी
मैं व्याकुल सोच रहा था
वह कोमल कली भली थी ।।९१।।
उस कटिक्षीणा की चितवन
इषत् इषु - सी इस उर में
चुभ गयी न जाने कब से
मेरे संयोग मधुर में ।।९२।।
ऊषा की अरुणाई में
उसकी मुस्कान निहारा
संध्या के पीलेपन में
देखा था लाल अँगारा।।९३।।
इस व्यथित व्योम में जुड़ते
वेदना - जलद के टुकड़े
क्या पुनः नहीं मिल सकते
चकई के जोड़े बिछुड़े ? ।।९४।।
यह अचल हृदय कँपता है
स्मृति - समीर को पा कर
मन सिहर -सिहर उठता है
उसको मस्तक में ला कर ।।९५।।