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अन्तर्दाह / पृष्ठ 22 / रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध'
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निर्मल मकरन्द गिराकर
दृगकंज हो चुके खाली
फिर आकर कौन भरेगा
पलकों की रीती प्याली ।।१०६।।
इन खोई - सी आँखों में
खोया- खोया सपना है
इस मानव भरे विजन में
कोई भी नहीं अपना है ।।१०७।।
है नींद नहीं आँखों में
रोते - रोते दृग सूखे
ये नेत्र सुदर्शन के ही
हैं व्याकुल, प्यासे, भूखे ।।१०८।।
जागते, बदलते करवट
रजनी भी बीत चली रे
मेरे इस मृदुल सुमन पर
क्यों छोड़ गई बिजली रे ।।१०९।।
दुख-दग्ध, प्रपीड़ित उर में
लेती चिन्तग्नि हिलोरें
निर्मम - सी जला रही है
जीवन को खूब झकोरे ।।११०।।