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अन्तर्दाह / पृष्ठ 39 / रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध'

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दुनिया में सब कहते हैं
पौरुष है भाग्य नियन्ता
वह चीर अनागत-पट को
सुख लाता, भगती चिन्ता ।।१८६।।

ओ मेरे पौरुष ! जागो
उर-अन्तर की ज्वाला में
दुर्वह अभिशाप छिपा दो
सुख-शीतल घन-माला में ।।१८७।।

मेरे जीवन - उपवन में
व्याकुल है पपिहा प्यासा
बरसो ,फिर तृषा बुझे यह
वह मिलने की प्रत्याशा ।।१८८।।

इस उजड़े - से उपवन में
 हो फिर अलि-कुल का गुंजन
फिर से बस्ती बस जाये
गृह - आंगन नूपुर - शिंजन ।।१८९ ।।

लकदक-लकदक करता हो
मेरा यह जीवन धुँधला
अब व्यथित हृदय में फैले
वह परम ज्योति अति विमला ।।१९०।।