भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अन्तर्देशीय / एकांत श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
धूप में नहाया
एक नीला आकाश
तुमने मुझे भेजा
अब इन झिलमिलाते तारों का
क्या करूँ मैं
जो तैरने लगे हैं
चुपके से मेरे अंधेरों में
क्या करूँ इन परिन्दों का
तुम्हारे अन्तर्देशीय से निकलकर
जो उड़ने लगे हैं मेरे चारों तरफ़
तुम्हारे न चाहने के बावजूद
तारों और परिन्दों के साथ
चुपचाप चले आए हैं
न जाने कितने सजल मेघ
जो चू पड़ना चाहते हैं
मेरे निर्जन में ।