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अन्तर-ज्वाला / महेन्द्र भटनागर

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अपने सुख को तजकर किसने संघर्षों को सिर मोल लिया ?
किसने निस्वार्थ, अभावों में निज तन-मन-धन से योग दिया ?

यह दुनिया अपनी ही जड़ता दुर्बलता से अनभिज्ञ रही,
जिसने अपने को बिन सोचे औरों की बातें खूब कहीं !

रोटी के टुकड़ों पर मानव का सर्वस्व दिया है लुटने,
जिसने, प्रतिहिंसा की ज्वाला में लाखों शीश दिये कटने !

अनगिनती अभिलाषाओं के पाने के अंध-प्रयासों में,
जिसने मानवता की परवा छोड़ी अपने अभ्यासों में !

पशुता का आदिम रूप वही उतरा है फिर से धरती पर
भीषण नर-संहार मचा है, गूँजा सामूहिक क्रन्दन-स्वर !

व्याकुलता जाग रही प्रतिक्षण सम्पूर्ण विश्व के आँगन में,
धधक रही है अंतर-ज्वाला नव-परिवर्तन की कण-कण में !

अब आने वाली है आँधी, कट जाएंगे जिससे बंधन,
अगणित शोषक-साम्राज्यों के भू-लुण्ठित होंगे सिंहासन !
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