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अन्तर आलाप / शबरी / अमरेन्द्र

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सब पिछुलका याद ऐथैं
आँख शबरी रोॅ मुनैलै,
पर तखनिये नी कहीं सेॅ
कोय्यो कहतेॅ ई सुनैलै-

”तों बहुत भोली छोॅ शबरी
तों अभीयो होने शुद्धि,
जानेॅ कहिया आबेॅ खुलथौं
बन्द तोरोॅ मन्द बुद्धि।

”तों बुझै छौ ई कैन्हें नी
राम वनवासी नै रहलै,
नृप आबेॅ अवध केरोॅ
कुछ बुझोॅ बिन बात कहलै।

”झूठ नै समझोॅ कहूँ सेॅ
राम रोॅ आदेश सेॅ ही,
जानकी-वनवास भेलै!
की कहाँ कोय्यो स्नेही?

”कोय्यों ई टा की कहलकै
‘राम रं हमरा बुझौ नै,
आन कन रहली त्रिया लेॅ
नीति तेॅ लै केॅ लुझोॅ नै।’

”बस यही एक बात लै केॅ
रामें तेजलकै सिया केॅ,
देखथैं रहलै अवध भर
काठ रं करलेॅ हिया केॅ।

”राम केॅ तेॅ राज मिललै
जानकी अभियो वनोॅ मेॅ,
हम्मेॅ नै जानौं कि शबरी
की-की तोरोॅ छोॅ मनोॅ मेॅ।“

बोल होलै
खत्म जैन्है,
झनझना झन
शोर तेन्है।

सब दिशाहै
छै प्रकम्पित,
देवता के
मूल्य शापित।

आँख खुललै ई सुनी केॅ
थरथरी छै, देह नै छै,
प्रश्न-शंका आरो की-की
भक्तिये नै नेह मेॅ छै।

मन डरै छै, असकरी की
जानकी डरतेॅ नै होतै?
बस यही नै; ढेर अशगुन
मोॅन शबरी रोॅ हसोतै।

तंग आवी केॅ कहीं नै
झम्प ही दै दै कुआँ मेॅ,
आगिने केॅ नै वरी लै
की दिखैतेॅ कुछ धुआँ मेॅ।

छाती पर रक्खी हथेली
बोली पड़लै मोॅन, शबरी,
”राम, हम्मेॅ जे सुनै छी
ई कठिन छै; जाँव उबरी!

‘आय सचमुच जानलौं ई
नारी लेॅ कोय्यो यहाँ नै,
घर सेॅ बाहर तक प्रताड़ित
तीनो लोकोॅ मेॅ; कहाँ नै!

”घोॅर सेॅ भागी केॅ ऐलां
बस यही लेॅ; बाबू कट्ठर,
भाय कट्ठर, पितियो होने
होय वाला साँय कट्ठर।

”बेटी छेलियै, चलतियै की
भागी केॅ ऐलौं वनोॅ मेॅ,
झम्प दै दौ, आगिने लौं
की नै उठलै ई मनोॅ मेॅ।

”जे घरे नै घोॅर बनलै
एक तिरिया लेॅ कहूँ सेॅ,
तेॅ वने के की भरोसोॅ
डोॅर बढ़िये केॅ वहू सेॅ।

”हाय हमरोॅ दुख सेॅ कुछुवो
कम तेॅ नै छै जानकी के,
सब त्रिया के भाग एक्के
के कहाँ खुश छै, सुखी के?

”लोर आँखी के बहैतेॅ
काटै छै अपनोॅ उमिर केॅ,
घोॅर बन्दीगृह लगेॅ तेॅ
घोॅर केना कहतै घर केॅ?

”हमरे साथें की नै होलै
वाक् सेॅ छलनी होलोॅ छी,
बस यही लेॅ कि त्रिया नी
जों गुणे सेॅ ही धोलोॅ छी।

”त्याग-सेवा सब त्रिया लेॅ
नारिये सबके सुखोॅ लेॅ,
लागै छै ई सृष्टि भर मेॅ
जनमली छै सब दुखोॅ लेॅ।

”लोक के लज्जा बचैतै
तेॅ यहू ठो नारिये ही,
घोॅर के रस्मो निभैतै
तेॅ यहू ठो नारिये ही!

”रावणें जों भय दिखैतै
तेॅ वहूं भी नारिये केॅ,
आरो पति वनवास देतै
तेॅ वहूं भी नारिये केॅ।

”लाक्षणो जों पुरुष केरोॅ
लागतै तेॅ नारिये पर,
की बतैयौं राम तोरा
नारी-जीवन गारिये पर।

”याद होथौं राम जखनी
हाथ जोड़ी केॅ कहलियौं-
नारी हम्मेॅ हीन कुल सेॅ
ऐलोॅ छी; दूरे रहलियौं।

”तेॅ तोंही नी कहलेॅ छेलौ-
‘भक्ति सेॅ कोय्यो नै ऊँच्चोॅ,
ऊ रहेॅ पुंसत्व आकि
आ फेनू नारीत्व छुच्छोॅ।’

”जानकी तेॅ त्याग-भक्ति
के सरोवर-सिन्धु छेकै,
की होलै जे कोय्यो भरमी
लांक्षणा रोॅ धूल फेंकै?

”की कही जग केॅ बतैवौ
प्रश्न कोय्यो काल करतौं,
कोॅन ऊ उपदेश देभौ
कष्ट केना केॅ उबरतौं?

”मानलौं की जानकी मेॅ
कोय कहूँ पर दोष होतै,
पर यही लेॅ दण्ड हेनोॅ?
नृप में ई रोष होतै?

”हे नरोत्तम, याद होथौं
मौन ऊ गोदावरी के;
प्रश्न तोरोॅ प्रश्न रहलै
दोख छेलै बाबरी के।

”बस यही लॅे शाप देलौ-
‘तोरोॅ जल मेॅ जे नहैतै,
अपनोॅ गुण-क्षय के ही साथें
ऊ तुरत चण्डाल होतै।

”शाप सेॅ जोॅ मुक्ति होलै
देवथै रोॅ याचना पर,
नारी रोॅ आँसू कभी की
काम ऐलोॅ छै नरेश्वर?

”आय तक हमरोॅ कुआँ मेॅ
लोर छै गोदावरी के,
आय तक नै भूललोॅ छी
बोल तोरोॅ आखरी के-

‘हे शबरतनया, हे शबरी
सचमुचे के तोरोॅ नाँखी,
जे जियै छै साधना लेॅ
मान आ सम्मान राखी।

‘के यहाँ पर तोरोॅ नाँखी
जे कहीं कुछ ठहरेॅ पारेॅ,
तोरोॅ गुण-आभा रोॅ सम्मुख
मान केॅ अपनोॅ संभारेॅ!

‘तहियो जैतेॅ-जैतेॅ हम्मेॅ
ई कहै छी, जों जँचौ तेॅ,
नाँकियोॅ नै, कोय युवक जों
ब्याह तोरा सेॅ रचौं तेॅ।

‘छोॅ किशोरी, ई वयस की
सचमुचे बैराग ले ली,
छौं प्रतीक्षा मेॅ तोरे लेॅ
एक अलसित सुधि पहेली।

‘बाँह थामी केॅ पुरुष के
ई प्रकृति तक रूप पावै,
योगमय छै, जे जहाँ पर
मृत्यु मेॅ भी खिलखिलावै।’

”राम तोरोॅ ऊ वचंन सेॅ
एक दाफी तेॅ मनोॅ मेॅ
कुछ हेने ही भाव उठलै
चैत जों बसलोॅ तनोॅ मेॅ।

”कूकतेॅ जां रहेॅ मन में
सौ-पचासौ साथ कोयल,
बौर के खुशगन्ध मादक
लाल, उजरोॅ, नील उत्पल।

”पर तोरोॅ प्रस्थान साथैं
भावो टा सब्भे विलैलै,
एक क्षण मेॅ लहर चंचल
धार में जाय केॅ समैलै।

”आय लागै छै कि हमरा
जों अकेली छी तेॅ अच्छे,
क्रीतदासी तेॅ नै केकरो
यातना सेॅ छै तेॅ रक्छे।

”सूर्यवंशी राम बोलोॅ
नारिये पर सब बली की,
देवता अवतार सेॅ लै
दुष्ट रावण रं छली की?

”जों सही ई बात छेकै
एक ज्योतिष के बतैलोॅ,
पूर्व जन्मोॅ के ही एक टा
भूल लें ई जनम पैलोॅ।

”जोॅन ऋषि के वामा छेलां
खूब हमरा प्रेम छेलै,
रात-दिन अनुरागनीये
योग जप सेॅ नेम छेलै।

पर जरा-सा चूक होथैं
क्रोध ऋषि के आग नाँखि,
शाप देलखिन, जे अभी छी
ताख पर पतिधर्म राखी।

”ऊ जनम सेॅ ई जनम तक
कोय सुख के नाम नै छै,
सच कहै छी, नारी केरोॅ
त्याग-तप सेॅ दाम नै छै।

”ई जनम रोॅ त्याग-सेवा-
शाप सेॅ बस मुक्ति लेली,
पुरुष केॅ सौ भाग्य मिललै
नारी केॅ तिनका-अघेली!

”अतनौ पर तेॅ मोॅन हमरोॅ
मानै लेॅ तैयार नै छै,
जे अवध केरोॅ बतैलेॅ
वै मेॅ कोनो सार नै छै।

”ई केना विश्वास करवै
राम ई आदेश करभौ,
जानकी केॅ राज बदला
योगिनी के भेष देभौ!

”मन नै मानै छै केन्होॅ केॅ
पर वने की झूठ बोलै?
फूल कुम्हलैलोॅ कैन्है छै;
पंछियो नै चोच खोलै।

”हवा इस्थिर साँस रोकी
दिन कैन्हैं करिया लगै छै,
आय पम्पापुर मेॅ कैन्हेॅ
मोॅन उसकरिया लगै छै।

”जों गुरूवर आय होतियै
प्रश्न बेकल करतियै की,
ई किसिम के दुख-व्यथा सेॅ
जीते जी ही मरतियै की।

”आय तेॅ हुनियो नै सम्मुख
ढाढ़सो कौनें बंधैतै,
प्रश्न जे हमरोॅ मनोॅ में
आय उत्तर, के छै, देतै?

”जानकी-वनवास सुनी केॅ
मोॅन हहरै, प्राण कपसै,
आगू-आगू हम्में छी तेॅ
पीछू-पीछू मृत्यु हफसै।

”कल तलक तेॅ
बोॅल मन केॅ,
आय पालां
घेरै तन केॅ।

”रूप ई सन्यासिनी के
व्यर्थ लागै,
श्वेत दगदग वसन आबेॅ
नै सुहावै!

”श्याम चर्मो हिरण केरोॅ
भार भेलै,
फूलमाला देह परकोॅ
खार भेलै।

”वेदी प्रत्यक्, वेदी बलि के
छै बुझावै,
आय कोनो किंछा हमरा
नै लुभावै।

”राम तोंही ई बतावोॅ
जे दशानन,
लाक्षणा जौनेॅ लगावेॅ
ऊ पतित जन,
की पुरुष रोॅ पाप सब्भे
जारिये लेॅ?
की धरा पर नारी जिनगी
गारिये लेॅ?

”नारी-सत्ता जो कलंकित
हेन्है होतै,
राजरानी जानकी जों
वन में रोतै;
निश्चिते कुल-शील-शशि पर
कुछ दिखैतै,
नीति के अन्यास अद्भुत!
के बतैतै?

”आ अवध के लोग भी तेॅ
मौन होतै,
मतलबे की! खाली सब के
रौन होतै।

”परवधू की ऐली होती?
बन्दिनी जे!
सब सहै लेॅ मौन होलेॅ;
नन्दिनी जे!

”पुछतियै के, जानकी रोॅ
दोष कैठां छै, कहौ,
दोष पुरुषोॅ के मढ़ै छै
नारी पेॅ के? चुप रहौ।

”सब सभासद शान्त होतै,
कुछ विवेकी भ्रान्त होतै।

नृप के सम्मुख के बोलेॅ,
मोॅन केकरोॅ के टटोलेॅ!

राम रोॅ आदेश काफी,
आरो केकरो द्वेष काफी।

जानकी सब कुछ सहै लेॅ,
दुख-व्यथा सब केॅ तहैलेॅ।

राखी लेतियै नन्दिनी केॅ,
युग-युगोॅ सेॅ बन्दिनी केॅ।

”राम आवी केॅ कहोॅ कि
झूठ छेकै, जे टा सुनलौं,
मोती-माणिक चुनौतियौ की
रेत परकोॅ रेत चुनलौं।’

”राम आवी केॅ कहोॅ कि
ई कथा अफवाह छेकै,
सूर्य केॅ झापे के कोनो
दुष्ट केरोॅ चाह छेकै।

”राम आवी केॅ कहोॅ कि
शील पुरुषोॅ के यही में,
नारी के जे मान जोगै
नर वही छै नर सही में।

”राम आवी केॅ कहोॅ कि
सुनलियै, जे भेद मति के,
खेल मायावी छेकै ई
भेष धारी केॅ जे यति के।“

ई कही चुप मौन भेलै
उत्तरोॅ के जों प्रतीक्षा,
आकि शबरी के ही लागै
आय छै कोनो परीक्षा।