भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अन्तिम आलोक / अज्ञेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सन्ध्या की किरण परी ने उठ अरुण पंख दो खोले,
कम्पित-कर गिरि शिखरों के उर-छिपे रहस्य टटोले।
देखी उस अरुण किरण ने कुल पर्वत-माला श्यामल-
बस एक शृंग पर हिम का था कम्पित कंचन झलमल।

प्राणों में हाय, पुरानी क्यों कसक जग उठी सहसा?
वेदना-व्योम से मानो खोया-सा स्मृति-घन बरसा।
तेरी उस अन्त घड़ी में तेरी आँखों में जीवन!
ऐसा ही चमक उठा था तेरा अन्तिम आँसू-कण!