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अन्तिम कविता / ए० अय्यप्पन / उमेश कुमार चौहान

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वाण किसी भी क्षण
पीठ में धँस जाएँगे
प्राण बचाकर भाग रहा हूँ,
शिकारी की झोपड़ी के पीछे मशालें लेकर घूमेंगे
मेरे स्वाद को याद कर छह-सात लोग
लालसा से भरे,
किसी पेड़ की आड़ भी न मिली,
एक शिला का द्वार खुला
एक गर्जना स्वीकार की
मैं उसके मुँह का निवाला बन गया।