अन्त्याक्षरी / प्रत्यूष चन्द्र मिश्र
इस समय मैं ट्रेन के सफ़र में हूँ
मेरे सामने कुछ बच्चे हैं खिलखिलाते-मुस्काते
काटते एक दूसरे को चिकोटियाँ
खेलते अन्त्याक्षरी
बताते हिट फिल्मों और अभिनेताओं के नाम
चलती हुई ट्रेन में बच्चों की बातें जैसे ठहर गई हैं
आठ-दस-बारह-साल के बच्चे
धरती का सबसे ख़ूबसूरत दृश्य पेश कर रहे हैं
एक बच्ची ने अभी गुनगुनाया
‘अय मालिक तेरे बन्दे हम’
दूसरे ने जवाब दिया —
‘मेरे देश की धरती सोना उगले उगले हीरे मोती’
तब तक तीसरे ने सुर मिलाया
‘तुम तो ठहरे परदेशी साथ क्या निभाओगे’
जिस अक्षर पर खत्म होता गीत
बच्चे वहीं से करते शुरुआत
ट्रेन की भीड़ अब थोड़ी शान्त है
बच्चों की अन्त्याक्षरी के बीच
मैं अपने हाथ में पड़े अख़बार को किनारे खिसकाता हूँ
अभी मुझे नहीं चाहिए अनर्गल बयानबाजी, धार्मिक उत्पात
बेवजह के दंगे, बलात्कार और हत्या के सनसनीखेज वारदात
गीतों की इस मोहक दुनिया और बच्चों की हंसी ने
बदल दिया है ट्रेन का माहौल
एक सुकून सा अनुभव हो रहा है सबों के चेहरे पर
और एक निश्चिन्तता भी
हमारी बर्बर होती इस दुनिया में
बच्चे एक उम्मीद की तरह हैं
क्योंकि बच्चे जानते हैं कि
जहाँ होता है अन्त
वहीं से करनी होती है शुरुआत ।