भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अन्त-विहीन, अनादि, नित्य / हनुमानप्रसाद पोद्दार
Kavita Kosh से
अन्त-विहीन, अनादि, नित्य हम दोनों एक सनातन-रूप।
बने सदा दो लीला करते, सहज अनन्त अचिन्त्य-अनूप॥
नित्य पुरातन, नित नूतन हम, सदा एकरस, एक अभिन्न।
पर भिन्नतामयी रस-लीला-धारा बहती नित अविछिन्न॥
सुखमय मिलन सहज, नित दारुण विरह-वियोग नित्य उर दाह।
नित्य मधुर-मृदु-हास्य-मनोहर, करुण-रुदन नित आह-कराह॥
है अनादि क्रन्दन यह मेरा, हैं अनन्त सुखमय दुख-भार।
अमिलन-मिलन, मिलन-अमिलन नित परम अतर्क मधुर सुख-सार॥