अन्त का जीवन / कुमार अंबुज
खिड़की से दिखती एक रेल गुज़रती है, भागती हैं जिसकी रोशनियाँ
उजाला नहीं करतीं, भागती हैं मानो पीछा छुड़ाना चाहती हैं अन्धेरे से
उसकी आवाज़ थरथराहट भरती है लेकिन वह लोहे की आवाज़ है
उसकी सीटी की आवाज़ बाक़ी सबको ध्वस्त करती
आबादी में से रेल गुज़रती है रेगिस्तान पार करने के लिए
लोग जीवन में से गुज़रते हैं प्रेमविहीन आयु पार करने के लिए
आख़िर एक दिन प्रेम के बिना भी लोग ज़िन्दा रहने लगते हैं
बल्कि ख़ुश रहकर, नाचते-गाते ज़िन्दा रहने लगते हैं
पीछे छूट गई बारीक़, मटमैली रेत में
मरीचिका जैसा भी कुछ नहीं चमकता
प्रेम की कोई प्रागैतिहासिक तस्वीर टँगी रहती है दीवार पर
तस्वीर पर गिरती है बारिश, धूल और शीत गिरता है,
रात और दिन गिरते हैं, उसे ढक लेता है कुहासा,
उसकी ओट में मकड़ियाँ, छिपकलियाँ रहने लगती हैं
फिर डॉक्टर कहता है इन दिनों आंसुओं का सूखना आम बात है
इसके लिए तो कोई आजकल दवा भी नहीं लिखता
एक दिन सब जान ही लेते हैं : प्रेम के बिना कोई मर नहीं जाता
धीरे-धीरे इस बात की आपसी समझ बन जाती है
कि रोज़-रोज़ मेल-मुलाक़ात मुमकिन नहीं
सारे विस्थापित जान चुके हैं
अब वे किसी गाँव-क़स्बे के निवासी नहीं
कुछ ही दूरी पर जो एक बहुत बड़ा कॉम्पलेक्स है
गूगल-अर्थ में शहर के नाम पर दिखती है इसी इमारत की तस्वीर
अब यही गगनचुम्बी इमारत है इस शहर का पर्यायवाची
लाँग शॉट में हज़ारों प्रकाशमान खिड़कियों से आलोकित
यह किसी उज्ज्वल द्वीप की तरह दिखाई देती है
अलबत्ता इसी शहर में ऐसी भी खिड़कियाँ हैं असँख्य
जिनके भीतर भी रहे चले आते हैं जीवित मनुष्य
लेकिन उधर से कोई रोशनी नहीं आती
बस, दिखता हुआ खिड़कियों के आकार का अन्धेरा है
जिसे आसपास की रोशनियाँ और ज़्यादा गाढ़ा करती हैं ।