अन्त की कुछ और कविताएँ (कविता) / तेजी ग्रोवर
1.
कुछ भी कहने से अब हर कहने में मनुष्य ही जन्म लेता
है और कुछ भी नहीं। इस तरह अब यहाँ बहुत देर तक
रुकना सम्भव नहीं है।
हर बार तालाब की ओर चलते हुए पत्थर तुमसे टकराकर
गिर जाते हैं। तुम्हें नहीं मालूम उनकी प्यास को अपने
बच्चों के दुख में कैसे पढ़ना है। कुछ आईने तुम्हारे कमरे
में शुरू ही से नहीं हैं।
तुम उन चिड़ियों को नहीं देख सकते जो तुम्हारी गढ़ी हुई
छायाओं के बीचोंबीच अपना रास्ता चीरती हुई उड़ने की
कोशिश करती हैं।
तुमसे कितनी बार कहा जा चुका है कि हर गीत में एक
ही तरह की उदासी भरते चले जाने का अर्थ है कि तुम
सुर में नहीं रह पाओगे।
तुमसे कितनी बार कहा जा चुका है कि चींटियों की टूटी
बाम्बियों के रुदन में तुम्हारे होने न होने के रुदन से कहीं
अधिक ईश्वर बसे हुए हैं।
2.
वह तुम्हारी भाषा की परिचारिका नहीं है — सरकण्डों में
से उड़कर आती हुई हवा। तुम्हारे किसी वाक्य में कौआ
आकर नहीं बैठता। तुम्हारे शब्दों में उसकी पीठ पर रोशनी
नहीं गिरती। तुम्हारे वस्त्र का नीला नीला नहीं है। तुम्हारी
बाजरे की बालियाँ हवा में बाजरे की तरह नृत्य नहीं करतीं।
तुम्हारे छुए हुए बीज चुप हो रहे हैं। तुम्हारी गढ़ी हुई मूर्तियाँ
फिर पत्थरों में बदलने की कोशिश कर रही हैं।
तुम्हारे चलने से यहाँ की मिट्टी गुस्सैल हो गई है।
3.
काल में मेरे कई ठौर हैं, कई ठिये हैं। पास पहुँचने पर एक
भी नहीं। ज़रूर वह थक गया होगा और फूलों पर भी श्रम
करते हुए उसे कोई ख़ुशी नहीं मिलती होगी। थक गई
होगी अगर वह मैं हूँ। चिड़ियों में एक अप्रत्याशित पीले
को लगाकर भी अब उसका मन नहीं लगता होगा।
वह उस मिट्टी के ढेमे से परे देखती रहती होगी जहाँ से
फूल को बन निकलना है।