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अन्धकार में खड़े हैं / केदारनाथ अग्रवाल
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अन्धकार में खड़े हैं
- प्रकाश के प्रौढ़ स्तम्भ
एक नहीं, हज़ार
- इस पार--उस पार
कुएँ के मौन में डूबे स्तब्ध;
भूल में भूली नदी,
- हंस की चोंच में दबी
आकाश में चली जा रही है उड़ी
न जाने कहाँ--न जाने कहाँ,
रुई ओटती है दुनिया
स्वप्न देखती है झुनिया ।