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अन्धेरा घिर आने पर / आरती मिश्रा

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मैं अपनी चेतना को उतारकर
रद्द हो चुके कपड़ों की तरह फेंक देना चाहती हूँ
इन दिनों वही करना चाहती हूँ
जैसा तुम कहते जाओ
तुम्हारी हथेलियों की तपन को फैलाकर नस-नस में
पकड़कर उँगली
चलते जाना चाहती हूँ
शहर के आख़िरी छोरवाली झोपड़ी तक
आज, अन्धेरा घिर आने की परवाह किए बग़ैर