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अन्धेरी इन राहों में चिरागाँ कोई तो करता / जगदीश नलिन

अन्धेरी इन राहों में चिरागाँ कोई तो करता
बेरंग इन फ़िज़ाओं में बहाराँ कोई तो करता

आते नहीं फ़रिश्तों के क़दम कभी इस ज़ानिब
वीराँ इन वादियों में गुलिस्ताँ कोई तो करता

ख़याल आते जो बदनुमा, हमें नासाज़ कर जाते
बुझ रहे एहसास में कहकशाँ कोई तो करता

तन्हा इस ज़िन्दगी में है नहीं कोई भी हमसाया
इस हाल में ख़ुद को मेहरबाँ कोई तो करता

आदमी ने पार कर दी हैं हदें हैवानियत की
शोर ये वारदातों के बेजुबाँ कोई तो करता

अन्धेरी इन राहों में चिरागाँ कोई तो करता
बेरंग इन फ़िज़ाओं में बहाराँ कोई तो करता